आदर्श शासक आदि पुरुष आदि ब्रह्म ऋषभ देव
जिनके गर्भ में आने के पूर्व ही देवराज इन्द्र अयोध्या में रत्नों एवं पुष्पों की वर्षा करने लगा हो, जिनके गर्भ में आने पर माता मरुदेवी ने अपने स्वप्नों के साथ में शुभ्र वृषभ को प्रवेश करते देखा हो और उसी क्षण से देवलोक की देवियाँ माता मरुदेवी की सेवा करने लगी हांे, जिनके जन्म लेने पर सौधर्म इन्द्र का आसन कम्पायमान हुआ हो, जिनका सुमेरु पर्वत पर इन्द्र-इन्द्राणी सहित समस्त देवलोक ने जन्माभिषेक किया हो, जिनके खेलने के खिलौने और पहनने के वस्त्रा देवलोक से आये हों, जिनने कल्पवृक्षों अर्थात् मानव मात्रा को सम्पूर्ण आवश्यकताओं की इच्छामात्रा से पूर्ति करने वाले वृक्षों के नष्ट होने पर व्याकुल प्रजा को असि, मसि, कृषि, विद्या, वाणिज्य और शिल्प का उपदेश देकर कर्म प्रधान मानव सभ्यता को जन्म दिया हो, जो जैन ग्रन्थों में ही नहीं, वेदों में उपनिषदों में तथा भागवत आदि पुराणों में समान श्रद्धा के पात्रा हों, जिन्हें जैन दर्शन ने प्रथम तीर्थंकर माना हो और जिनकी गिनती विष्णु के चैबीस अवतारों में हो और विष्णु के नामों से भी जिनकी यथार्थ संगति बैठती हो जैसे यथागर्भ में आते ही हिरण्य, सुवर्ण की वर्षा होने से जो हिरण्यगर्भ, कल्पवृक्ष नष्ट हो जाने पर षट्कर्मों का उपदेश देकर प्रजा का पालन करने से प्रजापति, समस्त लोक का स्वामी होने से लोकेश, चैदहवें मनु नाभिराय से उत्पन्न होने के कारण नाभिज, समवशरण में चारों ओर से आपका दर्शन होता है अतः चतुरानन, भोग भूमि नष्ट होने पर देश नगर आदि का विभाग, राजा गुरु शिष्य आदि का व्यवहार तथा विवाह प्रथा आदि के प्रवर्तक होने से स्रष्टा और बिना किसी उपदेश के स्वयं ही आत्मगुणों का विकास करने से स्वयंभू कहलाये, ऐसे उस विराट व्यक्तित्व के धनी, आदि ब्रह्म वृषभदेव।
हम आज तक दूसरों की उपलब्धियों में ही उत्सव मनाते रहे। हमने कभी स्वयं के परमात्मा को जगाने की कोशिश नहीं की। किसके इंतजार में बैठे हैं हम? कौन आयेगा हमारी नाव का खिवइया बनकर? नहीं मित्रो। किसी का भरोसा नहीं करना। ऐसी आशा भी नहीं करना कि कोई हमें संसार सागर से पार लगा देगा। इस भ्रम में मत जीना, सहारे मत खोजना। यहाँ सब अशरण हैं और जो शरण थे वे मोक्ष चले गये। अब वह वापिस आयेंगे नहीं। जैसे घी पुनः दूध नहीं बनता ऐसे ही सिद्ध परमात्मा संसार में वापिस नहीं लौटते। अब यदि उस परम निर्वाण को हमें प्राप्त करना है तो उनके छोड़े पद चिन्हों पर चलना पड़ेगा। तो, चलें और देखें उन प्रभु के जीवन की झांकी को, शायद हमें भी रास्ता मिल जाये शिव-पथ का।
इतना तो जान ही लिया कि इस महामानव का जन्म ही इतना महिमापूर्ण था कि संपूर्ण देवलोक ने उस अवसर पर अपनी सेवा प्रदान कर स्वयं को धन्य माना था। जब आदि प्रभु युवावस्था में प्रवेश कर रहे थे उस समय भोगभूमि समाप्ति की ओर थी। कल्पवृक्ष नष्ट होने लगे थे, जन समुदाय आकुल-व्याकुल हो रहा था। प्रजा ने नाभिराय से समाधान पूछा और नाभिराय ने प्रभु से। प्रजा के कष्टों को सुनकर जनप्रिय आदि कुमार एक क्षण के लिए मौन हुए और आँखें बंद कर ज्ञानलोक में प्रवेश करके, विदेह क्षेत्रा में प्रवर्तमान समाज व्यवस्था को जानकर, आँखें खोल मन्द-मन्द मुस्कराते हुए बोले, घबराने की कोई बात नहीं। अब हम दूसरों के आश्रित नहीं हैं। अब हम अपने पैरों पर खड़े होंगे। अब हम कृषि करेंगे और ऋषि बनेंगे।
प्रजा ने कहा स्पष्ट कहें प्रभु। हमें अब क्या करना है? तब प्रभु फिर बोले, कह रहा हूँ कि हमें अपनी रक्षा स्वयं करनी है इसलिए हे वीर पुरुषो! महावीरो! आगे आओ असि को धारण करो और क्षत्रिय धर्म का पालन करो। निर्बलों की, असहायों की रक्षा करो अर्थात् तलवार हाथ में ले लो। इस प्रकार सर्व प्रथम सुरक्षा व्यवस्था की दृष्टि से देवप्रिय आदि कुमार ने असि कर्म की शिक्षा दी। फिर मसि अर्थात् लेखनकार्य सिखलाया। इसके बाद कृषि कार्य की शिक्षा दी। आपने बताया कि कैसे हल-बखर चलाये जाते हैं? कौन-से काल में कौन-सी फसल अच्छी होती है आदि, साथ में यह भी कहा कि हे कृषको! हे मनुजो! संसार की भूख मिटाने के लिये परोपकार की दृष्टि से कृषि कर्म करो और सुनो। कृषि करके चार पैसे कमाओगे तो कुछ मनोरंजन की भी आवश्यकता होगी इसलिये विद्या कर्म को अपनाओ।
इस कर्म के अन्तर्गत प्रभु ने संगीत आदि की कला सिखाई। इसके बाद एक स्थान पर उत्पन्न वस्तु को दूसरे स्थान पर पहुँचाने के लिये वाणिज्य कर्म की व्यवस्था दी, जिन लोगों ने यह कार्य किया, उन्हें वैश्य नाम से जाना गया। जिन्हें आज हम व्यापारी कहते हैं और अंत में शिल्पकर्म अर्थात् सभी प्रकार की वस्तुयें, कलाकृतियों एवं भवन निर्माण की शिक्षा दी। इस प्रकार षटकार्यों का प्रादुर्भाव करके कर्मयुगीन मानव सभ्यता को जन्म दिया।
आगे चलकर आदि कुमार ने विवाह प्रथा की शुरुआत की। स्वयं भी यशस्वती और सुनंदा नामक राजपुत्रियों से विवाह किया। यशस्वती की कोख से भरत आदि सौ पुत्रों तथा ब्राह्मी नामक पुत्राी ने जन्म लिया तो सुनंदा से बाहुबली एवं सुन्दरी उत्पन्न हुए। आदि कुमार के प्रथम पुत्रा भरत इस सृष्टि का प्रथम चक्रवर्ती सम्राट हुआ। उसी भरत के नाम से ही यह देश भारत कहलाया।
आदि प्रभु के द्वितीय पुत्रा बाहुबलि के तप-त्याग की कहानी तो जग विख्यात है ही। उन्हें कौन भूल सकता है जो एक वर्ष तक अम्बर तले दिगम्बर रूप में खड़े रहे, शरीर पर बेलें चढ़ गईं, सर्पों ने बिल बना लिये और पक्षियों ने घोसले, पर योगी की समाधि नहीं टूटी और अंत में कैवल्य के आलोक में निर्वाण प्राप्त किया। आपकी दोनों पुत्रियों का व्यक्तित्व भी पुत्रों से कम नहीं है। एक बार ब्राह्मी एवं सुन्दरी ने सम्राट आदि देव से पूछ-पिताजी, क्या इस लोक में आपसे बड़ा कोई और है जिसे आपको भी पूजना पड़े? इतना सुनते ही पिता ने कहाµबेटी, जिसका तुम लोग वरण करोगी, वही मेरे लिये पूज्य होगा। इतना सुनते ही ब्राह्मी तथा सुन्दरी एक साथ बोल पड़ींµनहीं पिताजी, आप तीनों लोकों में पूज्य रहेंगे। आपका मस्तक कहीं कभी नहीं झुकेगा। हम आज से ही ब्रह्मचर्य धारण करते हैं। कितना महान् त्याग। आदि देव ने दोनों बेटियों को अक्षर और अंक कला में निष्णात किया जो आज भी ब्राह्मी लिपि के नाम से प्रसिद्ध है और उन लोगों के सामने प्रश्न चिन्ह है जो भारत में अक्षर, अंक कला की शुरुआत बहुत बाद में हुई मानते हैं।
आदि देव 83 लाख पूर्व वर्षों तक गृहस्थाश्रम में रहे। आयु का इतना लम्बा काल निकल गया पर तब तक उन महामानव ने आत्महित के बारे में नहीं सोचा। चूँकि कल्याण तो उनकी आत्मा का अवश्यंभावी था अतः निमित्त मिल ही गये, वैराग्य सूर्य का उदय हो ही गया। एक दिन राज्यसभा में तबले की थाप पर थिरकती नीलांजना के पैर रुक गये, हंस उड़ गया। इन्द्र ने तत्क्षण दूसरी नर्तकी भेज दी बिल्कुल उसी नीलांजना की तरह अन्य सभासद् समझ ही नहीं पाये पर आदि देव ने जीवन की क्षण-भंगुरता जान ली। वे विचार करने लगे, मैं यहाँ उत्सव मना रहा हूँ और मृत्यु पंख झुला रही है। पता नहीं कब जीवन सूर्य अस्त हो जाये। अब और नहीं। अब तो इसी जीवन में अनंतकालीन जीवन का अंतिम मधुर संगीत सुनना है। ठीक उसी समय ब्रहर्षि लोकांतिक देवों ने आकर प्रभु के वैराग्य पूर्ण विचारों की सराहना की। वह हाथ जोड़कर कहने लगेµहे प्रभु! संसार के लिये जीवन जीने की कला सीखने के बाद, जीवन को अमर बनाने की कला सिखाने, राज्य पाट छोड़कर, दिगम्बर हो, श्रमण बनें, वन गमन उचित ही है।
देवों द्वारा लाई हुई पालकी पर आरूढ़ हो प्रभु ने वन गमन किया। कुछ दूर पालकी पर जाने के बाद फिर पैदल चले और जंगल में जाकर सिद्ध भगवान को नमन कर दिगम्बरी दीक्षा ले ली। आपके साथ चार हजार राजा भी दीक्षित हुये। प्रभु आदिनाथ तो दीक्षा लेेते ही शरीर से ममत्व छोड़कर कायोत्सर्ग मेें लीन हो गये। छः माह बीत गये। जो देखा-देखी में साधु बने थे, वे चार हजार राजा तो तपस्या से च्युत हो गये। प्रभु जब ध्यान छोड़ आहार चर्या के लिये निकले तो लोग जानते ही नहीं थे कि दिगम्बर साधु को कैसे आहार दिया जाता है। अतः अज्ञानतावश कोई कहता, स्वामी हमारी ओर देखो, प्रसन्न होओ। ये रत्न वस्त्रा आदि ले लो और सुख से राज्य करो। कोई कहता, ये मेरी सुन्दर बेटी है, इसे ग्रहण करो और प्रसन्न होकर भोजन करो। आहार विधि नहीं मिली और आदिनाथ फिर छः माह के लिये समाधि में बैठ गये। पुनः उठे, फिर विधि नहीं मिली। प्रभु विहार करते-करते हस्तिनापुर आ गये। उन्हें देखकर राजा श्रेयांस को पूर्व भव का जाति-स्मरण हुआ। पिछले जन्म में उन्होंने ऐसी दिगम्बर मुद्रा को आहार दान दिया था। विधि ज्ञात हो गई। वह महल के द्वार पर चैक पूर कर मंगल कलश लिये खड़े हो गये। पूरा परिवार साथ था। प्रभु को देखते ही सभी ”हे स्वामी नमोस्तु, नमोस्तु, नमोस्तु। अत्रा, अत्रा, अत्रा। तिष्ठ, तिष्ठ, तिष्ठ।“ इस प्रकार बोलने लगे। प्रभु ने देखा, विधि मिल गई, खड़े हो गये, आहार सम्पन्न हुआ। अभाव के दंश से बचना है तो आशाओं-आकांक्षाओं का त्याग करो और अपनी आत्मा को परमात्मा बनाने का प्रयास करो। तुम्हारे पास भी वही सब योग्यताएँ हैं जो मेरे पास हैं। बस, तुम जगत् के प्रति क्रोध, मान, माया, लोभ, असत्य, असंयम रूपी शत्राुओं को त्याग कर क्षमा, मार्दव, आर्जव, शौच, सत्य, संयम, तप, त्याग, आकिंचन्य एवं ब्रह्मचर्य से मित्राता कर सद्भावों से भर जाओ तो पाओगे कि तुम्हारे अंदर भी परमात्मा का सागर लहरा रहा है। तुम भी विश्व को प्रेम का नीर पिलाने में समर्थ हो।
प्रभु की साधना उत्तरोत्तर वृद्धिंगत होती गई। कर्म बेड़ियों के बंधन भी शिथिल पड़ गये और अंत में कैलाश पर्वत पर ध्यान की अग्नि में कर्मों को जलाकर परम निर्वाण को प्राप्त किया और अनंत-अनंत काल के लिए सिद्धालय में मुक्ति वधू का वरण कर लिया।
उसी पावन पुनीत दिवस को आज हम सब याद कर रहे हैं। इसका सबसे महत्त्वपूर्ण कारण यह है कि आप ऐसे प्रथम ऐतिहासिक दिव्य पुरुष हुए जिन्हें एक से अधिक संस्कृतियों में समान आदर प्राप्त है। दूसरे यह है कि आपने मानव मात्रा के लिए जीवन जीने की कला के साथ-साथ जीवन को अमर बनाने की कला भी सिखाई और आगे होने वाले सम्राटों के लिए भी अनुकरणीय उदाहरण प्रस्तुत किया। कुछ काल तक आगे होने वाले राजाओं ने इसका अनुसरण भी किया। वे पहले राज्य-भार संभलाते हुए प्रजा का पालन करते थे फिर राज्य त्याग कर वन गमन कर, मुनि बन श्रमणत्व के आलोक में मुक्ति को प्राप्त करते थे। काल दोष से ये परम्परा टूट चुकी है वरना आज भी होते हमारे देश की संसद के आदर्श-भगवान ऋषभदेव। तो ऐसे आदर्श शासक आदि पुरुष आदि ब्रह्मा ऋषभदेव प्रभु के श्री चरणों में शत्-शत् नमन करते हुए प्रभु आदिनाथ का ध्यान करता हूँ।