भक्तामर और विश्वास की शक्ति
भक्तामर स्तोत्र का अचिन्त्य और अद्भुत प्रभाव है। इस स्तोत्र साधना द्वारा सभी प्रकार की ऋद्धि-सिद्धियाँ प्राप्त की जा सकती हैं। यह स्तोत्र आत्मिक शक्ति का विकास करता है। परन्तु इसकी साधना के लिए श्रद्धा या दृढ़ विश्वास का होना परम आवश्यक है। श्रद्धा का अर्थ है तीव्रतम आकर्षण। यदि मंत्रा के प्रति हमारी कोई श्रद्धा नहीं है, कोई आकर्षण नहीं है, दृढ़ विश्वास नहीं है तो चाहे वर्ण का ठीक समायोजन हो, ठीक उच्चारण हो तो भी जो घटित होना चाहिए वह घटित नहीं हो सकता। आज-कल के वैज्ञानिक भी इस बात को स्वीकार करते हैं कि बिना आस्तिक्य भाव के किसी लौकिक कार्य में भी सफलता प्राप्त करना सम्भव नहीं है।
अमेरिकन डाॅक्टर होवार्ड रस्क (Howard Rusk) ने बताया है कि रोगी तब तक स्वास्थ्य लाभ नहीं कर सकता है, जब तक वह अपने आराध्य में विश्वास नहीं करता है। आस्तिकता ही समस्त रोगों को दूर करने वाली है। जब रोगी को चारों ओर से निराशा घेर लेती है, उस समय आराध्य के प्रति की गयी प्रार्थना प्रकाश का कार्य करती है। प्रार्थना का फल अचिन्त्य होता है। दृढ़ आत्मविश्वास एवं आराध्य के प्रति की गयी प्रार्थना सभी प्रकार मंगलों को देती है। हृदय के कोने से सशक्त भावों में निकली हुई अन्तरध्वनि बड़े से बड़ा कार्य सिद्ध करने में सफल होती है।
अमेरिका के जज हेरोल्ड मेडिना ;भ्ंतवसक.डमकपदंद्ध का अभिमत है कि आत्मशक्ति का विकास तभी होता है, जब मनुष्य यह अनुभव करता है कि मानव की शक्ति से परे भी कोई वस्तु है। अतः श्रद्धापूर्वक की गयी प्रार्थना बहुत चमत्कार उत्पन्न करती है। प्रार्थना में एक विचित्रा प्रकार की शक्ति देखी जाती है। जीवन-शोधन के लिए आराध्य के प्रति की गयी विनीत प्रार्थना बहुत फलदायक होती है।
डाॅ. एलफेड टोरी भूतपूर्व मेडिकल डायरेक्टर नेशनल एसोसियेशन फाॅर मेंटल होस्पिटल आफ अमेरिका का अभिमत है कि सभी बीमारियाँ शारीरिक, मानसिक एवं आध्यात्मिक क्रियाओं से सम्बद्ध हैं, अतः जीवन में जब तक धार्मिक प्रवृत्ति का उदय नहीं होगा, रोगी का स्वास्थ्य लाभ पाना कठिन है। प्रार्थना उक्त प्रवृत्ति को उत्पन्न करती है। आराध्य के प्रति की गयी भक्ति में बहुत बड़ा आत्मसम्बल है। अदृश्य बातों की रहस्यपूर्ण शक्ति का पता लगाना मानव को अभी नहीं आता है। जितने भी मानसिक रोगी देखे जाते हैं, अन्तरतम की किसी अज्ञात वेदना से पीड़ित हैं। इस वेदना का प्रतिकार आस्तिक्य भाव ही है। उच्च या पवित्रा आत्माओं की आराधना जादू का कार्य करती है।
भक्तामर स्तोत्र की निष्काम साधना से लौकिक और पारलौकिक सभी प्रकार के कार्य सिद्ध हो जाते हैं। पर इस सम्बन्ध में एक बात आवश्यक यह है कि जाप करने वाला साधक, जाप करने की विधि, जाप करने के स्थान की भिन्नता से फल में भिन्नता हो जाती है। यदि जाप करने वाला सदाचारी, शुद्धात्मा, सत्यवक्ता, अहिंसक एवं ईमानदार है, तो उसको इस मन्त्रा की आराधना फल तत्काल मिलता है। जाप करने की विधि पर भी फल की हीनाधिकता निर्भर करती है। जिस प्रकार अच्छी औषध भी उपयुक्त अनुपान विधि के अभाव में फलप्रद नहीं होती अथवा अल्प फल देती है, उसी प्रकार यह भक्तामर भी दृढ़ आस्थापूर्वक निष्काम भाव से उपयुक्त विधिसहित जाप करने से पूर्णफल प्रदान करता है। यूं तो पानी तरल है। जब वह जम जाता है, सघन हो जाता है वह बर्फ बन जाता है। जो हमारी कल्पना है, हमारा चिंतन है वह तरल पानी है जब चिंतन का पानी जमता है तब वह श्रद्धा बनती है, विश्वास बनता है, जब हमारा चिंतन श्रद्धा में बदल जाता है, जब हमारा चिंतन विश्वास में बदल जाता है। तब वह इतना घनीभूत हो जाता है कि बाहर का प्रभाव कम से कम हो जाता है। उस स्थिति में जो घटना घटित होनी चाहिए वह सहज हो जाती है।स्थान की शुद्धता भी अपेक्षित है। समय और स्थान भी कार्यसिद्ध में निमित्त हैं। कुसमय या अशुद्ध स्थान पर किया गया कार्य अभीष्ट फलदायक नहीं होता है। अतः इस भक्तामर स्तोत्रा का जाप मन, वचन और काय की शुद्धिपूर्वक विधिसहित करना चाहिए। यूँ तो जिस प्रकार मिश्री की डली कोई भी व्यक्ति किसी भी अवस्था में खाये, उसका मुँह मीठा ही होगा। इसी तरह इस मन्त्रा का जाप कोई भी व्यक्ति किसी भी स्थिति में करे, उसे आत्मशुद्धि की प्राप्ति होगी। केवल श्रद्धा के बल पर जो घटित हो सकता है, वह श्रद्धा के बिना घटित नहीं हो सकता।
इस स्तोत्रा की प्रमुख विशेषता यह है कि इसमें सभी मातृका ध्वनियाँ विद्यमान हैं। अतः समस्त बीजाक्षरों वाला यह स्तोत्रा जिसमें मूल ध्वनि रूप बीजाक्षरों का संयोजन भी शक्ति के क्रमानुसार किया गया है, सर्वाधिक शक्तिशाली है। इस स्तोत्रा का किसी भी अवस्था में आस्था और लगन के साथ चिन्तन करने से फल की प्राप्ति होती है।