आचार्य मानतुंग स्वामी

जीवन परिचय एवं भक्तामर स्तोत्र रचना


जैन जगत में आचार्य कुन्द कुन्द स्वामी की परंपरा में इस भारत भूमि की पावन वसुंधरा पर जैन आचार्य हुए हैं। उन्हीं जैन आचार्यों ने भक्ति भाव से भरे हुए समय समय पर अनेक स्त्रोत्रों की भाव-भीनी रचना की है। उन्हीं रचनाओं में सर्वश्रेष्ठ भक्तामर स्त्रोत्र है जिसके रचयिता आयार्य मानतुंग मुनि महाराज हैं। ऐसे महामंगलकारी स्त्रोत्रों का काल निर्णय इसके रचयिता और मानतुंग मुनि महाराज ने किन परिस्थितियों में स्त्रोत्र की
रचना की, उसके जानने से हमारी विशुद्धि में अधिक उजलापन आता है। मानतुंग नाम में दो शब्द है: माऩतुंग। मान अर्थात् जिसे ऊँचा सम्मान प्राप्त है और जिसमें स्वतंत्रता शक्ति का उछाल आया है तथा तुंग अर्थात् उत्कृष्ट। जिसने उत्कृष्ट भाव से मान (विवेक) सहित भगवान की शक्ति अर्जित की है, वह जीव स्वयं त्रिलोकीनाथ तीर्थंकर होता है और इन्द्रों का मुकुट उसके चरणों में नमता है। ऐसे श्री मानतुंगाचार्य देव ने यह भक्तामर स्त्रोत्र बनाया है। इन्होंने वीतराग भावना के लिए वीतराग की स्तुति की है।

निश्चय से साधक और साध्य तथा भक्त और भगवानपना अपने में ही हैं ‘निश्चय से’ हम स्वयं ही भगवान हैं और साधक भाव की उपेक्षा से भक्त भी स्वयं ही हैं।

ईसा की 11वीं शताब्दी में मालवा प्रान्त की उज्जैयनी नगरी में गुणग्राही विद्याप्रेमी महाराज भोज शासन करते थे। उनको संस्कृत साहित्य एवं काव्य में प्रगाढ़ रुचि थी। उनके शासन काल में संस्कृत भाषा ही राजभाषा थी, जिसके प्रचार एवं प्रसार हेतु निरन्तर अपार धन राशि राजकीय कोषागार की ओर से व्यय की जाती थी।

महाराजा भोज की राजसभा में कविरत्न कालिदास और ब्राह्मण विद्वान वररुचि उच्चकोटि के विद्वान सभासद थे, जिनके समक्ष तत्कालीन सुप्रसिद्ध विद्वान भी नतमस्तक होते थे।

एक दिन नगर सेठ सुदत्त जी अपने प्रिय सुपुत्रा मनोहर को साथ लेकर राजसभा में आये। महाराज भोज ने उनका अत्यधिक सम्मान किया। बालक के आकर्षक व्यक्तित्व से प्रभावित होकर महाराज ने प्रश्न किया – ”सेठ जी! आपके यह कुँवर साहब क्या अध्ययन कर रहे हैं?“ सेठजी ने उत्तर दिया कि – ”महाराज! अभी इसका विद्यारम्भ ही है। इसने केवल नाममाला के श्लोक ही कंठस्थ किये हैं। अपने ही नगर के सुप्रसिद्ध विद्वान स्याद्वाद विद्या पारंगत महाकवि धनंजय जी का यह ग्रन्थ एक वस्तु के अनेक पर्यायवाची शब्दों का ज्ञान कराने वाला अनूठा लघु शब्दकोष है।”

महाराज भोज कविवर धनंजय जी की पाण्डित्य प्रतिभा से भली-भाँति परिचित थे क्योंकि उन्होंने एक बार सभारत्न विद्वान कवि कालिदासजी को वाद-विवाद प्रतियोगिता में अपने पाण्डित्य से निरुत्तर कर दिया था।

विचारशील राजा भेाज बोले, ”वास्तव में धनंजय जी जैसे विद्वानों से ही हमारी नगरी धन्य है। वे संस्कृत साहित्य की अलौकिक निधि हैं। इन जैसे विद्वान ही हमारे संस्कृत साहित्य के प्रचार एवं प्रसार कार्यक्रम को सफलीभूत कर सकेंगे।“

विप्र कालिदास सभा में समुपस्थित थे, उनका जैन धर्मावलम्बियों से तो प्राकृतिक द्वेष था ही किन्तु महाकवि धनंजय जी से तो और भी विशेष द्वेष था। प्रतिद्वन्द्वी से बदला लेने का उचित समय हाथ आया देखकर बोले, ”राजन्! उस वणिक् धनंजय की बात तो छोड़ो, उसके गुरु मानतुंग को ही बुलवाकर हमसे शास्त्रार्थ करवा लीजिए, आपको विद्वान की परीक्षा हो जावेगी।

राजा भोज जानते थे कि विद्वान धनंजय का पक्ष उस समय भी प्रबल रहा था, उनके गुरु तो वैसे भी उच्चकोटि के विद्वान होंगे।

अतः शास्त्रार्थ कौतूहल देखने के उद्देश्य से महाराज भोज ने महर्षि मानतुंग के निकट अपना दूत भेज दिया। दूत ने नगर उद्यान में विराजमान सौम्य मूर्ति से अपने स्वामी का सन्देश निवेदन किया कि भगवन्! मालवाधीश महाराज भोज ने आपकी ख्याति सुनकर आपके दर्शनों की अभिलाषा व्यक्त की है और आपको राजसभा में बुलाया है अतः कृपा करके चलिये। रागद्वेष परित्यागी मुनिराज ने उत्तर दिया कि भाई! राजद्वार से हमें क्या प्रयोजन है, हम खेती तथा वाणिज्य नहीं करते, और न किसी प्रकार की याचना ही करते हैं। फिर राजा हमें क्यों बुलावेगा? अस्तु साधुओं को राजा से कुछ सम्बन्ध नहीं है। अतः हम उनके पास जाना नहीं चाहते हैं।

बेचारा दूत हताश होकर लौट आया तथा मुनिराज ने जो उत्तर दिया, वह राजा को सुना दिया। इस पर भी महाराज भोज निराश न हुए और उन्होंने पुनः सेवक मुनिराज को विनम्रता के साथ ले आने के लिए भेजे परन्तु मुनि श्री नहीं आये। इस प्रकार चार बार दूत मुनि श्री को लेने गया परन्तु निराशा ही साथ आयी। अब कालिदास जी के उकसाने से क्रोधावेश में महाराज ने जिस तरह भी संभव हो सके मुनिराज को पकड़ कर लाने की आज्ञा दे दी। कई बार निराश होने के कारण भड़के हुए सेवक यह चाहते ही थे अतः आवेश में तत्काल मुनि श्री को पकड़ लाये और राजसभा में खड़ा कर दिया।

उस समय मुनिराज ने उपसर्ग समझ कर मौन धारण कर लिया था। राजा ने बहुत प्रयास किए कि यह महात्मा जी कुछ बोलें परन्तु उनके मुख से एक अक्षर भी नहीं निकला। तब कालिदास तथा अन्य विद्वेषी विप्र बोले कि महाराज! यह कर्नाटक देश से निकाला हुआ यहाँ आकर रह रहा है तथा यह महामूर्ख है। यह राजसभा एवं विद्वत परिषद् को देखकर भयभीत हो रहा है। आपका प्रताप न सह सकने के कारण कुछ बोलता नहीं है।

इस पर बहुत से श्रद्धालुओं ने मुनि श्री से विनीत भाव से नम्र निवेदन किया कि ”आप सन्त हैं, महा विद्वान् हैं, इस समय आपको कुछ धर्मोपदेश देना चाहिए, राजा विद्या विलासी हैं सुनकर सन्तुष्ट होंगे तथा जिन धर्म की प्रभावना भी होगी।“ परन्तु वे धीर-वीर महा साधु सुमेरु की तरह अडोल हो गये। समस्त जन-समुदाय के प्रयास निरर्थक रहे वे मुनिराज की किंचित् वाणी भी न सुन सके।

इस पर राजा भोज ने क्रोधावेश में आदेश दिया कि इनको मजबूत लोहे की सांकलों से बांध कर अड़तालीस कोठरियों के भीतर वन्दीगृह में बन्दी बनाकर मजबूत ताले लगा दिये जावें तथा पहरेदार भी बैठा दिये जावें।

सारी उज्जयनी नगरी में हा-हाकार मच गया, योगीराज मानतुंगाचार्य तीन दिन-रात 75 घण्टे वन्दीगृह में कायोत्सर्ग ध्यान में लीन रहे। चतुर्थ दिवस अपने अन्तर ध्यान में हृदय कमल पर विराजे युगादि तीर्थंकर श्री ऋषभ जिनेन्द्र का अड़तालीस काव्य, जो ऋद्धि, मंत्रा गर्भित थे, रचकर स्तवन किया।

उसी क्षण फूट पड़ी मानतुंग की भक्ति।

उस कारागार में भी मानो भगवान को साक्षात् देखते हुए मुनि मानतुंग भगवान की स्तुति कर रहे हैं, यह कहते हैं – हे अनिमेष दर्शनीय प्रभु! जितने भी, जैसे शान्त एवं सुन्दर परमाणुओं से तुम्हारी आकर्षक देह बनी हुई है, वे परमाणु निस्संदेह जगत् में उतने ही थे। यही कारण है कि आपके जैसा रूप दुनिया में दूसरा नहीं है। और आपको देखकर फिर अन्यत्रा मानवों के नयन संतुष्ट नहीं होते। ठीक भी तो है क्षीर सागर के मीठे जल को पीकर कौन खारे समुद्र का जल पीना चाहेगा। आप जिस जननी के गर्भ में आये वह भी महानता को प्राप्त हो गयी। सर्वत्रा सैकड़ों नारियाँ, सैकड़ों पुत्रों को जन्म देती रहती हैं लेकिन आप जैसे पुत्रा को जन्म देने वाली स्त्राी क्या साधारण हो सकती है? तारिकाओं को तो सभी दिशायें धारण कर लेती हैं लेकिन वह सामथ्र्य पूर्व दिशा में ही है जो नियति को धारण कर सके। फिर आपका महत्त्व तो सूर्य से भी बढ़कर है क्योंकि आप न तो कभी अस्त होते हैं, न राहु के द्वारा ग्रसित होते हैं और न ही मेघ से आवरित हो पाते हैं। एक साथ तीनों लोकों को प्रकाशित करने वाले हैं आप! जैसे प्रलयकाल की वायु मेरु को हिला नहीं पाती वैसे ही हे प्रभु! देवाúनायें भी आपके मन में विकार उत्पन्न न कर सकीं। अतः हे तीनों लोकों के दुःखहत्र्ता! आपको मेरा बारम्बार नमस्कार हो। हे धरतीतल के आभूषण, तीन लोक के परमेश्वर, संसार समुद्र के शोषक आपको सत्कार हो।

इस प्रकार भक्ति एवं शांत रस से परिपूर्ण होकर, अलंकारों से सज्जित बसन्ततिलका छन्द में जब मुनि मानतुंग की मधुर स्वर लहरी वातावरण में गूँजी तो न केवल 48 ताले तड़-तड़ कर टूट गये बल्कि यह काव्य ऋद्धि-मंत्र सहित अलौकिक उपलब्धि के रूप में हमारे सामने आया।

ज्योंही स्तोत्र पूर्ण हुआ त्योंही हथकड़ी, बेड़ी और समस्त ताले टूट गए और खट-खट बन्दीगृह के पट खुल गये। उपसर्ग दूर समझ मुनिराज बाहर निकल कर चबूतरे पर आ विराजे। यह देख कर पहरेदार बड़े चिन्तित हुए उन्होंने बिना किसी से कहे सुने फिर उसी तरह बन्दी बना लिया परन्तु कुछ समय पश्चात् पुनः वही दशा हुई सेवकों ने फिर वैसा ही किया पर मुनिराज फिर बाहर आ बिराजे। अन्त में भयभीत द्वारपालों ने महाराजा भोज को मुनिराज के बन्धन मुक्त होने के वृत्तान्त से अवगत कराया। यह वृत्तान्त सुनकर राजा को बड़ा आश्चर्य हुआ परन्तु यह विचार कर कि सम्भव है प्रमाद वश रक्षा में कुछ त्रुटि हुई होगी। अतः सेवकोें को पुनः आज्ञा दी कि – जाओ! उनको अच्छी तरह दुहरे ताले लगाकर बन्द कर दो और सावधानी पूर्वक पहरा देना। पहरेदारों ने वैसा ही किया परन्तु पुनः वही दशा हुई कि वे सकलव्रती महर्षि बाहर निकलकर सीधे राजसभा में ही जा पहुँचे।

महात्मा जी के दिव्य शरीर के प्रभाव से राजा का हृदय कांप गया। उन्होंने कालिदास को बुलाकर कहा कि कविराज! मेरा आसन कम्पित हो रहा है, मैं अब इस सिंहासन पर क्षण भर भी नहीं ठहर सकता हूँ। कालिदास ने राजा को धैर्य बंधाया और उसी समय योगासन में बैठकर कालिका स्तोत्रा पढ़ना प्रारम्भ कर दिया। जिसके प्रभाव से कालिका देवी प्रकट हुईं।

इतने में मुनिराज के निकट चक्रेश्वरी देवी ने प्रत्यक्ष होकर दर्शन दिए। देवी चक्रेश्वरी का भव्य सौम्य तथा कालिका का विकराल प्रचण्ड रूप देखकर राज्सभा चकित हो गयी। देवी चक्रेश्वरी ने ललकार कर कहा कि – कालिके! तू यहाँ क्यों आयी? क्या अब तूने मुनि, महात्माओं पर उपसर्ग करने की ठानी है! अच्छा, देख अब मैं तेरी कैसी दशा करती हूँ। प्रभावशालिनी चक्रेश्वरी की भृकुटी चढ़ी देखकर कुटिल कालिका कांप गयी। और नाना प्रकार से प्रार्थना करके कहने लगी कि – हे माता! क्षमा करो, अब मैं ऐसा कृत्य कभी नहीं करूँगी। इस पर चक्रेश्वरी देवी ने काली को बहुत-सा धर्मोंपदेश दिया और कहा कि – ”मैं श्री ऋषभदेव जिनेन्द्र की मुख्य सेविका हूँ। उनकी भव पूर्ण अक्षुण्ण भक्ति श्री मुनि मानतुंगाचार्य ने अड़तालीस श्लोकों में की, मुझे बड़ी प्रसन्नता हुई और मैंने ही राजा भोज के कारागार से बन्धन मुक्त कर महात्मा मुनि मानतुंग को यहाँ लाकर विराजमान कर दिया। इसी प्रकार अप्रत्यक्ष रूप से सभी भक्तों के कार्य पूर्ण करना मेरा ध्येय है।“ कहकर अंतर्ध्यान हो गयी।
इसके पश्चात् कालिका ने मुनि श्री से क्षमा प्रार्थना की तथा उनकी स्तुति भी की और तत्पश्चात् वह भी अदृश्य हो गयी।

राजा भोज और कालिदास ने मुनिराज का प्रताप देखकर क्षमा-याचना की और बड़े भक्ति भाव के स्तुति की। येागीश्वर मुनि मानतुंगाचार्य ने मौन त्याग कर उपदेशामृत की वृष्टि की। राजा भोज ने प्रभावित होकर मुनिराज से श्रावक के व्रत लिये और अपने राज्य में जैन धर्म का विशेष प्रचार एवं प्रसार कराया। श्रेष्ठी सुदत्त एवं जिनेन्द्र भक्त कविवर धनंजय को भी जैन धर्म की प्रभावना से महान् हर्ष हुआ।

श्री जिनेन्द्र देव की भक्ति से तालों की क्या विसात, कर्म बन्धन भी खुल जाते हैं।

जो आज भी चमत्कारिक प्रभाव के साथ जैन धर्म की महती प्रभावना का कारण है। जो भी श्रद्धालु श्रद्धा एवं भक्ति के साथ किसी भी प्रकार की इच्छा को लेकर इसका ऋद्धि मंत्र सहित जाप करता है वह न केवल अपनी मनोवांछित वस्तु प्राप्त करता है, बल्किा स्वर्ग एवं मोक्ष जैसे सुख को भी पा लेता है।

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