मंत्र शक्ति

मंत्र शक्ति

मंत्र विकल्प से निर्विकल्प तक पहुँचने की पद्धति है। मंत्र सविचार से निर्विचार तक पहुँचने की पद्धति है। (मंत्र में पहला तत्त्व है शब्द या ध्वनि। शब्द भाषात्मक होता है और ध्वनि झंकार रूप होती है, अव्यक्त होती है। शब्द का अर्थ के साथ कोई सीधा संबंध नहीं होता। शब्द और अर्थ में कुछ दूरी होती है। ध्वनि अर्थ के कुछ निकट चली जाती है।) ‘दूध’ एक शब्द है। दूध कहने से पेट नहीं भरता। जहाँ हमारा शब्द होता है वहाँ दूध और दूध नाम के पदार्थ इन दोनों में दूरी होती है। (किन्तु जैसे-जैसे हमारी संकल्प-शक्ति दृढ़ होती है, भावना का प्रयोग होता है, ध्वनि सूक्ष्म होती चली जाती है।) तब शब्द और अर्थ की दूरी कम होती चली जाती है। तब ऐसा होता है कि ‘दूध’ कहते ही दूध तैयार मिलता है। भारतीय साहित्य में तीन शब्द बहुलता से मिलते हैं कल्पवृक्ष, कामधेनु और चिन्तामणि रत्न। ये तीनों शब्द इतने शक्तिशाली होते हैं कि जो माँगा वह तैयार। शब्द और अर्थ की सारी दूरी समाप्त। शब्द के साथ-साथ अर्थ की घटना घट जाती है। ऐसा संकल्प-शक्ति के द्वारा भी हो सकता है, होता है। हमारी संकल्प-शक्ति ही चिन्तामणि रत्न है। ये तीनों कामनाओं की पूर्ति करते हैं। जो कामना को पूरा करे, वह कामधेनु।

mantra shakti

जो कल्पना को पूरा करे, वह कल्पवृक्ष और जो चिन्तन को पूरा करे, वह चिन्तामणि रत्न। ये सब हमारे संकल्प से भिन्न कुछ नहीं हैं। सब संकल्प ही है। (संकल्प मंत्र का महत्त्वपूर्ण तत्त्व है। जहाँ शब्द, ध्वनि और संकल्प-शक्ति तीनों का योग होता है वहाँ मंत्रा की शक्ति जागृत हो जाती है, मंत्र का साक्षात्कार हो जाता है और मंत्र का देवता प्रकट हो जाता है। संकल्प-शक्ति के द्वारा जब आन्तरिक ज्योति का जागरण होता है, उस ज्योति का नाम ही है देवता। जब हमारा शब्द ज्योति में बदल जाता है तब मंत्र का साक्षात्कार हो जाता है। मंत्र चैतन्य हो जाता है।) ऊर्जा का आभा-वलय निर्मित होगा। वह इतना शक्तिशाली और इतना प्रतिरोधात्मक बनेगा कि बाहर की कोई भी शक्ति आक्रमण नहीं कर पाएगी। शब्द में अनंत शक्ति होती है। प्रत्येक अक्षर शक्ति से भरा होता है। मंत्रशास्त्र की जो खोजें हुई हैं, वे बड़ी अद्भुत हैं। उन खोजों ने जो विवरण प्रस्तुत किया, उसे हम भूल गए, अन्यथा हम औषधि के स्थान पर मंत्रा का ही उपयोग करते। सारा काम मंत्र से हो जाता।

मंत्राशक्ति का सदुपयोग भी हो सकता है और दुरुपयोग भी हो सकता है। आचार्य भद्रबाहु ने संघ की सुरक्षा के लिए ‘उवसग्गहर स्तोत्रा’ का निर्माण किया। उसको संघ को देते हुए कहा ‘जब भी कोई समस्या आए, विघ्न उपस्थित हो, उस समय इस स्तोत्रा का उच्चारण करने पर देव प्रस्तुत होगा, संकट का निवारण करेगा। उपयोग और दुरुपयोग साथ-साथ चलते हैं। एक बहन रसोई बना रही थी। बछड़ा खूँटी पर बंधा था। वह रस्सी तुड़ाकर भाग गया। उस बहन ने सोचा कि रसोई छोड़कर जाना उचित नहीं है। मंत्र का प्रयोग क्यों न करूँ? उसने मंत्र जपा। देव उपस्थित हुआ। पूछा ‘क्या संकट है?’ बहन ने कहा ‘कोई संकट नहीं है। बछड़ा भाग गया है। उसे लाकर बाँध दो।’ देव ने आज्ञा का पालन किया। फिर देव ने आचार्य के पास जाकर सारी बात कही। आचार्य ने स्तोत्रा में परिवर्तन कर दिया। उसके जाप से संकट तो दूर होता रहा किन्तु देव की साक्षात् उपस्थिति छूट गई।

‘अ’ से ‘ह’ तक प्रत्येक अक्षर का वर्ण होता है, स्वाद होता है। यदि हम उच्चारण की सूक्ष्मता में जाएँ तो पता चलेगा कि अक्षरों के उच्चारण के साथ-साथ स्वाद में भी अन्तर आ रहा है। जब यह सूक्ष्म ज्ञान लुप्त हो गया तो मंत्रा की शक्ति भी विस्मृत हो गई, उसकी चाबी हमारे हाथ से चली गई। मंत्रशक्ति शब्द की संयोजना पर निर्भर है। मंत्र-शक्ति का मुख्य तत्त्व है शब्द की संयोजना। किस उद्देश्य से मंत्रा का उपयोग करना है, उस आधार पर शब्द की संयोजना की जाती है। जैसे रसायन शास्त्री जानता है कि किन-किन द्रव्यों को मिलाने से कौन-सा द्रव्य बनता है, वैसे ही मंत्राविद् जानता है कि किन-किन शब्दों की संयोजना से किस प्रकार की तरंग पैदा हुई होगी । वे परमात्माओं को कैसे प्रकाशित करेंगे और उनकी परिणिति किस प्रकार की होगी।

मंत्रों की वर्णमाला

मन्त्रबीजों की निष्पत्ति बीज और शक्ति के संयोग से होती है।

सारस्वत बीज, माया बीज, शुभनेश्वरी बीज, पृथ्वी बीज, अग्निबीज, प्रणवबीज, मारुतबीज, जलबीज, आकाशबीज आदि की उत्पत्ति उक्त हल और अचों के संयोग से हुई है। यों तो बीजाक्षरों का अर्थ बीजकोश एवं बीज व्याकरण द्वारा ही ज्ञात किया जाता है, परन्तु यहाँ पर सामान्य जानकारी के लिए ध्वनियों की शक्ति पर प्रकाश डालना आवश्यक है।

= अव्यय, व्यापक, आत्मा के एकत्व का सूचक, शुद्ध-बुद्ध ज्ञान रूप, शक्ति- द्योतक, प्रणव बीज का जनक।

= अव्यय, शक्ति और बुद्धि का परिचायक, सारस्वत बीज का जनक, माया बीज के साथ कीर्ति, धन और आशा का पूरक।

= गत्यर्थक, लक्ष्मी-प्राप्ति का साधक, कोमल कार्यसाधक, कठोर कर्मों का बाधक, वद्दि बीज का जनक।

= अमृत बीज का मूल, कार्य साधक, अल्पशक्ति द्योतक, ज्ञानवर्द्धक, स्तम्भक, मोहक, जृम्भक।

= उच्चाटन बीजों का मूल, अद्भुत शक्तिशाली, श्वास नलिका द्वारा जोर का धक्का देने पर मारक।

= उच्चाटक और मोहक बीजों का मूल, विशेष शक्ति का परिचायक, कार्यध्वंस के लिए शक्तिदायक।

= ऋद्धिबीज, सिद्धिदायक, शुभ कार्यसम्बन्धी बीजों का मूल, कार्यसिद्धि का सूचक।

लृ = सत्य का संचारक, वाणी का ध्वंसक, लक्ष्मी बीज की उत्पत्ति का कारण, आत्मसिद्धि में कारण।

= निश्चल, पूर्ण, गतिसूचक, अरिष्ट निवारण बीजों का जनक, पोषक और संवर्द्धक।

= उदात्त, उच्च स्वर का प्रयोग करने पर वशीकरण बीजों का जनक, पोषक और संवर्द्धक। जल बीज की उत्पत्ति का कारण, सिद्धिप्रद कार्यों का उत्पादक बीज, शासन देवताओं का आह्नान करने में सहायक, क्लिष्ट और कठोर कार्यों के लिए प्रयुक्त बीजों का मूल, ऋण विद्युत का उत्पादक।

= अनुदात्त, निम्न स्वर की अवस्था में माया बीज का उत्पादक, लक्ष्मी और श्री का पोषक, उदात्त, उच्च स्वर की अवस्था में कठोर कार्यों का उत्पादक बीज, कार्यसाधक, निर्जरा का हेतु, रमणीय पदार्थों की प्राप्ति के लिए प्रयुक्त होने वाले बीजों में अग्रणी, अनुस्वारान्त बीजों का सहयोगी।

= मारण और उच्चाटनसम्बन्धी बीजों में प्रधान, शीघ्र कार्यसाधक, निरपेक्षी, अनेक बीजों का मूल।

अं = स्वतन्त्रा शक्तिरहित, कर्माभाव के लिए प्रयुक्त ध्यान मन्त्रों में प्रमुख, शून्य या अभाव का सूचक, आकाश बीजों का जनक, अनेक मृदुल शक्तियों का उद्घाटक, लक्ष्मी बीजों का मूल।

अः = शान्ति बीजों में प्रधान, निरपेक्षावस्था में कार्य असाधक, सहयोगी का अपेक्षक।

= शक्ति बीज, प्रभावशाली, सुखोत्पादक, सन्तान प्राप्ति की कामना का पूरक, काम बीज का जनक।

= आकाशबीज, अभाव कार्यों की सिद्धि के लिए कल्पवृक्ष, उच्चाटन बीजों का जनक।

= पृथक् करने वाले कार्यों का साधक, प्रणव और माया बीज के साथ कार्य सहायक।

= स्तम्भक बीज, स्तम्भन कार्यों का साधक, विघ्नविघातक, मारण और मोहक बीजों का जनक।

= शत्राु का विध्वंसक, स्वर मातृका बीजों के सहयोगानुसार फलोत्पादक, विध्वंसक बीज जनक।

= अंगहीन, खण्डशक्ति द्योतक, स्वरमातृ का बीजों के अनुसार फलोत्पादक, उच्चाटन बीज का जनक।

= छाया सूचक, माया बीज का सहयोगी, बन्धनकारक, आप बीज का जनक, शक्ति का विध्वंसक, पर मृदु कार्यों का साधक।

= नूतन कार्यों का साधक, शक्ति का वर्द्धक, आधि-व्याधि का शामक, आकर्षक बीजों का जनक।

= रेफयुक्त होने पर कार्यसाधक, आधि-व्याधि विनाशक, शक्ति का संचारक, श्री बीजों का जनक।

= स्तम्भक और मोहक बीजों का जनक, कार्यसाधक, साधन का अवरोधक, माया बीज का जनक।

= वद्दि बीज, अग्नि कार्यों का प्रसारक और निस्तारक, अग्नितत्त्व युक्त, विध्वंसक कार्यों का साधक।

= अशुभ सूचक बीजों का जनक, क्लिष्ट और कठोर कार्यों का साधक, मृदुल कार्यों का विनाशक, रोदनकर्ता, अशान्ति का जनक, सापेक्ष होने पर द्विगुणित शक्ति का विकासक, वाहिनिबीज ।

= शासन देवताओें की शक्ति का प्रस्फोटक, निकृष्ट कार्यों की सिद्धि के लिए अमोघ, संयोग से पंचतत्त्व रूप बीजों का जनक, निकृष्ट आचार-विचार द्वारा साफल्योत्पादक, अचेतन क्रिया साधक।

= निश्चल, माया बीज का जनक, मारण बीजों में प्रधान, शान्ति का विरोधी, शक्तिवर्धक।

= शान्ति सूचक, आकाश बीजों में प्रधान, ध्वंसक बीजों का जनक, शक्ति का स्फोटक।

= आकर्षक बीज, शक्ति का आविष्कारक, कार्यसाधक, सारस्वत बीज के साथ सर्वसिद्धिदायक।

= मंगलसाधक, लक्ष्मी बीज का सहयोगी, स्वर मातृकाओं के साथ मिलने पर मोहक।

= कर्मनाश के लिए प्रधान बीज, आत्मशक्ति का प्रस्फोटक, वशीकरण बीजों का जनक।

= श्रीं और क्लीं बीजों का सहायक, सहयोगी के समान फलदाता, माया बीजांे का जनक।

= आत्मसिद्धि का सूचक, जलतत्त्व का स्रष्टा, मृदुतर कार्यों का साधक, हितैपी, आत्मनियन्ता।

= परमात्मा का दर्शक, जलतत्त्व के प्राधान्य से युक्त, समस्त कार्यों की सिद्धि के लिए ग्राह्य।

= वायु और जलतत्त्व युक्त, महत्त्वपूर्ण कार्यों की सिद्धि के लिए ग्राह्य, स्वर और रेफ युक्त होने पर विध्वंसक, विघ्नविघातक, ‘फट्’ की ध्वनि से युक्त होने पर उच्चाटक, कठोर कार्य साधक।

= अनुस्वार युक्त होने पर समस्त प्रकार के विघ्नों का विघातक और निरोधक, सिद्धि का सूचक।

= साधक, विश्षतः मारण और उच्चाटन के लिए उपयोगी, सात्त्विक कार्यों का निरोधक, परिणत कार्यों का तत्काल साधक, साधना में नाना प्रकार से विघ्नोत्पादक, कल्याण से दूर, कटु मधु वर्णों से मिश्रित होने पर अनेक प्रकार के कार्यों का साधक, लक्ष्मी बीजों का विरोधी।

= सिद्धिदायक, लौकिक और पारलौकिक सिद्धियों का प्रदाता, सन्तान की प्राप्ति में सहायक।

= शान्ति का साधक, सात्त्विक साधना की सिद्धि का कारण, महत्त्वपूर्ण कार्यों की सिद्धि के लिए उपयोगी, मित्रा प्राप्ति या किसी अभीष्ट वस्तु की प्राप्ति के लिए अत्यन्त उपयोगी, ध्यान का साधक।

= अग्निबीज, कार्यसाधक, समस्त प्रधान बीजों का जनक, शक्ति का प्रस्फोटक और वर्द्धक।

= लक्ष्मी प्राप्ति में सहायक, श्रीं बीज का निकटतम सहयोगी और सगोत्राी, कल्याणसूचक।

= सिद्धिदायक, आकर्षक, ह्, र्, और अनुस्वार के संयोग से चमत्कारों का उत्पादक, सारस्वत बीज, भूत-पिशाच-शाकिनी-डाकिनी आदि की बाधा का विनाशक, रोगहर्ता, लौकिक कामनाओं की पूर्ति के लिए अनुस्वार मातृका सहयोगापेक्षी, मंगलसाधक, विपत्तियों का रोधक और स्तम्भक।

= निरर्थक, सामान्य बीजों का जनक या हेतु, उपेक्षाधर्मयुक्त, शान्ति का पोषक।

= आह्वान बीजों का जनक, सिद्धिदायक, अग्निस्तम्भक, जलस्तम्भक, सापेक्ष ध्वनि ग्राहक, सहयोग या संयोग द्वारा विलक्षण कार्यसाधक, आत्मोन्नति से शून्य, बीजों का जनक, भयंकर और बीभत्स कार्यों के लिए प्रयुक्त होने पर कार्यसाधक।

= सर्व समीहित साधक, सभी प्रकार के बीजों में प्रयोग योग्य, शान्ति के लिए परम आवश्यक, पौष्टिक कार्यों के लिए परम उपयोगी, ज्ञानावरणीय-दर्शनावरणीय आदि कर्मों का विनाशक, क्लींबीज का सहयोगी, काम बीज का उत्पादक, आत्मसूचक और दर्शक।

= शान्ति, पौष्टिक और मांगलिक कार्यों का उत्पादक, साधना के लिए परमोपयोगी, स्वतन्त्रा और सहयोगापेक्षी, लक्ष्मी की उत्पत्ति में साधक, सन्तान प्राप्ति के लिए अनुस्वार युक्त होने पर जाप्य में सहायक, आकाशतत्त्व युक्त, कर्म-नाशक, सभी प्रकार के बीजों का जनक।

उपर्युक्त ध्वनियों के विश्लेषण से स्पष्ट है कि मातृका मन्त्रा ध्वनियों के स्वर और व्यंजनों के संयोग से ही समस्त बीजाक्षरों की उत्पत्ति हुई है तथा इन मातृका ध्वनयिों की शक्ति ही मन्त्रों में आती है।

मंत्र कवच के रुप में

यह सारा जगत् तरंगों से आन्दोलित है। विचारों की तरंगें, कर्म की तरंगें, भाषा और शब्द की तरंगें पूरे आकाश में व्याप्त हैं। व्यक्ति का मस्तिष्क और स्नायविक प्रणाली भी आन्दोलित हो रही है। इस स्थिति में मंत्रा की उपयोगिकता का आकलन किया जा सकता है। मंत्रा क्या है और उसके द्वारा क्या किया जा सकता है, यह सोचने का भी एक अवसर मिलता है। मंत्र की प्रतिरोधात्मक शक्ति है। मंत्रा एक कवच है। मंत्रा एक प्रकार की चिकित्सा है। संसार में होने वाले प्रकंपनों से कैसे बचा जा सकता है? उनके प्रभावों को कैसे कम किया जा सकता है? इन प्रश्नों का उत्तर है कि व्यक्ति प्रतिरोधात्मक शक्ति का विकास करे और मंत्र की भाषा में कहा जा सकता है कि कवचीकरण का विकास करे। प्राचीन काल में योद्धा कवच पहनकर ही रणभूमि में उतरते थे। उन कवचों के आधार पर योद्धा शत्राुओं के प्रहारों को झेलने में समर्थ हो जाते थे। मंत्र-साधना कवच बनाने की साधना है। इससे आने वाले प्रकंपनों के प्रहारों से बचा जा सकता है।

प्रत्येक व्यक्ति के चारों ओर आभामंडल होता है, एक वलय होता है। अच्छा विचार होता है तो अच्छा आभामंडल बन जाता है। बुरा विचार होता है तो बुरा अभामंडल बन जाता है। अच्छा परिणाम अच्छी लेश्या। बुरा परिणाम बुरी लेश्या। हम मंत्राशक्ति का उपयोग करें और शब्दों की ऐसी संयोजना करें कि ऊर्जा का आभामंडल बने। हम उस शब्द-विन्यास का उच्चारण करें। सूक्ष्म उच्चारण करें या सूक्ष्मातिसूक्ष्म उच्चारण करें। उससे ऊर्जा का आभावलय निर्मित होगा। वह इतना शक्तिशाली और इतना प्रतिरोधात्मक बनेगा की बाहर की कोई भी शक्ति आक्रमण नहीं कर पायेगी। शब्द में अनंत शक्ति होती है। प्रत्येक अक्षर शक्ति से भरा होता है। मंत्रा शास्त्रा की जो खोजें हुई हैं, वे बड़ी अद्भुत हैं। उन खोजों ने जो विवरण प्रस्तुत किया, उसे हम भूल गये अन्यथा औषध के स्थान पर मंत्रा का उपयोग करते। संदेशवाहक के स्थान पर हम मंत्रा से ही काम लेते। समाचार मंगाने या भेजने के लिए हम मंत्रा का ही उपयोग करते। सारा कार्य मंत्रा से ही हो जाता। हम इसी मंत्राशास्त्रा को पुनर्जीवित करने का प्रयास कर रहे हैं।

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