स्वयंभूवे नमस्त्युभ्यमुत्पाद्यात्मान मात्मनि। स्वात्मनैव तथोद्भूत वृत्तयेऽचिन्त्यवृत्तये॥१॥
अर्थ : हे भगवन् ! आपने स्वयम् अपने आत्मा को प्रकट किया है, अर्थात् आप अपने आप उत्पन्न हुए हैं, इसलिए आप स्वयंभू कहलाते हैं ।
आपको आत्मवृत्ति अर्थात् आत्मा में ही लीन अथवा तल्लीन रहने योग्य चारित्र्य तथा अचिन्त्य महात्म्य की प्राप्ति हुई है, इसलिये आपको मेरा नमस्कार हो।
नमस्ते जगतां पत्ये लक्ष्मीभर्त्रे नमोस्तु ते । विदावरं नमस्तुभ्यं नमस्ते वदतांवर ॥२॥
अर्थ – आप जगत के स्वामी हैं, इसलिये आपको मेरा नमस्कार हो, आप अंतरंग तथा बहिरंग दोनों लक्ष्मी के स्वामी हैं, इसलिये आपको मेरा नमस्कार हो।
आप विद्वानों मे और वक्ताओं में भी श्रेष्ठतम है, इसलिये भी आपको मेरा नमस्कार हो।
कर्मशत्रूहणं देव मानमन्ति मनीषिणः। त्वामानमन्सुरेण्मौलि-भा-मालाऽभ्यर्चितक्रमम्॥३॥
अर्थ- हे देव ! बुध्दिमान आपको कामदेव रूपी शत्रू का नाश करनेवाला मानते हैं, तथा इन्द्र भी अपने मुकुट मणिके कान्तिपुंज से आपके पादकमलों की पूजा करते हैं, अर्थात् उनके शीष आपके चरणो में झुकाकर आपको नमस्कार करते हैं, इसलिये आपको मेरा भी नमस्कार हो ।
ध्यान-द्रुघण-निर्भिन्न-घन-घाति-महातरुः। अनन्त-भव-सन्तान-जयादासीदनन्तजित्॥४॥
अर्थ – आपने अपने ध्यानरूपी कुठार ( कुल्हाड़ी) से बहुत कठोर घातिया कर्मरूपी बडे वृक्षी को काट डाला है तथा अनन्त जन्म-मरणरूप संसार की संतान परंपरा को जीत लिया है इसलिये आप अनन्तजित कहलाते हैं ।
त्रैलोक्य-निर्जयाव्याप्त-दुर्दर्पमतिदुर्जयम्। मृत्युराजं विजित्यासीज्जिन! मृत्युंजयो भवान्॥५॥
अर्थ – हे जिन! तीनों लोकों का जेता होने का जिसे अत्यंत गर्व हुआ है, तथा जो अन्य किसी से भी जीता नहीं जा सकता ऐसे मृत्यु को भी आपने जीत लिया है इसलिए आप ही मृत्युंजय कहलाते हैं ।
विधूताशेष – संसार – बन्धनो भव्यबान्धव:। त्रिपुराऽरि स्त्वमेवासि जन्म मृत्यु-जरान्तकृत्॥६॥॥
अर्थ – संसार के समस्त बंधनों का नाश करनेवाले आप, भव्य जीवों के बन्धू हैं । जन्म, मृत्यु और वार्धक्य रूपी तीनों अवस्थाओंका नाश करनेवाले भी आप ही हैं, अर्थात् आप ही त्रिपुरारि हैं ।
त्रिकाल- विषयाऽशेष तत्त्वभेदात् त्रिधोत्थितम्॥ केवलाख्यं दधच्चक्षु स्त्रिनेत्रोऽसि त्वमीशित:॥ ७॥
अर्थ- हे अधीश्वर, भूत, भविष्य, वर्तमान तीनों कालो ंके समस्त तत्त्वों एवम् उनके तीनों भेदों को जानने योग्य केवलज्ञान रूप नेत्र आप धारण करते हैं, इसलिये आप ही त्रिनेत्र हैं ।
त्वामन्धकान्तकं प्राहु र्मोहान्धाऽसुर- मर्दनात्।अर्ध्दं ते नारयो यस्मादर्धनारीश्वरोऽस्यत:॥८॥
अर्थ – आपने मोहरुपी अन्धासुर का नाश किया है, इसलिए आप अन्धकान्तक कहलाते हैं, आपने आठ मे ंसे चार शत्रू ( अर्ध न अरि) का नाश किया है, इसलिये आपको अर्धनारीश्वर भी कहते हैं ।
शिव: शिवपदाध्यासाद् दुरिताऽरि हरो हर:। शंकर कृतशं लोके शंभवस्त्वं भवन्सुखे॥९॥
अर्थ – आप शिवपद अर्थात मोक्षनिवासी है इसलिये शिव कहे गये, पापोको हरने वाले है, इसलिये हर है, जगत का दाह शमनेवाले है इसलिए शंकर है और सुख उत्पन्न है, इसलिए शंभव कहे गये है।
वृषभोऽसि जगज्ज्येष्ठ: पुरु: पुरुगुणोदयै:।नाभेयो नाभि सम्भूते रिक्ष्वाकु-कुल्-नन्दन:॥१०॥
अर्थ – आप जगतमे ज्येष्ठ है, इसलिएअ आप वृषभ है, आप संपुर्ण गुणोंकि खान होनेसे पुरु है, नाभिपुत्र होनेसे नाभेय, नाभि के काल मे होनेसे नाभिसमभूत, और इक्ष्वाकू कुल मे जन्म लेने कि वजह से आपको इक्ष्वाकू कुलनन्दन भि कहे जाते है।
त्वमेक: पुरुषस्कंध स्त्वं द्वे लोकस्य लोचने। त्वं त्रिधा बुध्द-सन्मार्ग स्त्रिज्ञ स्त्रिज्ञानधारक:॥११॥
अर्थ- सब पुरुषोंमे आपही एक श्रेष्ठ है, लोगोंके दो नेत्र होने के कारण आप के दो रूप धारक है, तथा मोक्षके तीन मार्गके एकत्व को आपने जाना है, आप तीन काल एक साथ देख सकते है और रत्नत्रय धारक है, इसलिये आप त्रिज्ञ भि कहलाते है।
चतु:शरण मांगल्य – मूर्तिस्त्वं चतुरस्रधी। पंचब्रह्ममयो देव पावनस्त्वं पुनीहि माम्॥१२॥
अर्थ – इस जगत् मे आपहि एक चार मांगल्योंका एकरुप है और आप चारो दिशाओंके समस्त पदार्थोंको एक् साथ जानते है, इसलिए आप चतुरस्रधी कहलाते है। आपहि पंच परमेष्ठीस्वरुप है, पावन करनेवाले है, मुझे भि पवित्र किजिए।
स्वर्गाऽवतारिणे तुभ्यं सद्योजातात्मने नम:। जन्माभिषेक वामाय वामदेव नमोऽस्तुते॥१३॥
अर्थ – आप स्वर्गावतरण के समय हि सद्योजात ( उसी समय उत्पन्न ) कहलाये थे और जन्माभिषेक के समय आप बहोतहि सुंदर दिख रहे थे, इसलिये हे वामदेव आपको नमस्कार हो।
सन्निष्कान्ता वघोराय, पदं परममीयुषे। केवलज्ञान-संसिध्दा वीशानाय नमोऽस्तुते॥१४॥
अर्थ- दीक्षासमय मे आपने परम शान्तमुद्रा धारण कि थी, तथा केवलज्ञान के समय आप परमपद धारी होकर ईश्वर कहलाए, इसलिये आपको नमस्कार हो।
पुरस्तत्पुरुषत्वेन विमुक्त पदभाजिने। नमस्तत्पुरुषाऽवस्थां भाविनीं तेऽद्य विभ्रते॥१५॥
अर्थ – अब आगे शुध्द आत्म स्वरुप के द्वारा मोक्ष को प्राप्त होंगे, तथा सिध्द अवस्था धारण करनेवाले है, इसलिये हे विभो मेरा आपको नमस्कार है।
ज्ञानावरण- निर्हासा न्नमस्तेऽनन्तचक्षुषे। दर्शानावरणोच्छेदा न्नमस्ते विश्वदृश्वने॥१६॥
अर्थ- ज्ञानावरण कर्म का नाश करनेसे आप अनन्तज्ञानी कहलाते है और दर्शनावरण कर्म के नाशक आप विश्वदृश्वा ( समस्त विश्व एक साथ देखने वाले) कहलाते है, इसलिए हे देव मेरा आपको नमस्कार है।
नमो दर्शनमोहघ्ने क्षायिकाऽ मलदृष्टये। नम श्चारित्रमोहघ्ने विरागाय महौजसे॥ १७॥
अर्थ – आप दर्शन मोहनीय कर्म का नाश करने वाले तथा निर्मल क्षायिक सम्यकदर्शन के धारक है, आपने चारित्र्यमोहनीय कर्म का नाश किया है और वीतराग एवम् तेजस्वी है, इसलिए हे प्रभु मेरा आपको नमस्कार है।
नमस्तेऽ नन्तवीर्याय नमोऽ नन्त सुखत्मने। नमस्ते अनन्तलोकाय लोकालोक वलोकिने॥१८॥
अर्थ – आप अनन्तवीर्यधारी, अनन्तसुखमे लीन तथा लोकालोक को देखने वाले हो, इसलिए हे अनन्तप्रकाशरूप मेरा आपको नमस्कार है।
नमस्तेऽ नन्तदानाय नमस्तेऽ नन्तलब्धये। नमस्तेऽ नन्तभोगाय नमोऽ नन्तोप भोगिने॥१९॥
अर्थ – आपके दानांतरायकर्म का नाश हुआ है और अनन्त लब्धियोंके धारक है, आपका लाभ, भोग तथा उपभोग के अंतराय कर्म का भि नाश हुआ है इसलिए हे विभो आप अनन्त भोग तथा उपभोग को प्राप्त है, मेरा आपको नमस्कार है।
नम: परमयोगाय नम्स्तुभ्य मयोनये। नम: परमपूताय नमस्ते परमर्षये॥२०॥
अर्थ – हे परम देव आप परमध्यानी है, आप ८४ लक्ष योनीसे रहित है, आप परमपवित्र है, आप परम ऋषी है, इसलिए मेरा आपको नमस्कार हो।
नम: परमविद्याय नम: परमतच्छिदे। नम: परम तत्त्वाय नमस्ते परमात्मने॥२१॥
अर्थ- आप केवलज्ञानधारी हो, इसलिए आपको नमस्कार हो। आप सब परमतोंका नाश करनेवाले है,इसलिए आपको नमस्कार हो। आप परमतत्त्वस्वरूप अर्थात रत्नत्रय – रूप है तथा आप हि परम आत्मा है, इसलिए आपको नमस्कार हो।
नम: परमरूपाय नम: परमतेजसे। नम: परम मार्गाय नमस्ते परमेष्ठिने॥२२॥
अर्थ- आप बहोत सुंदर रुप धारी परम तेजस्वी हो, इसलिए आपको नमस्कार हो। आप रत्नत्रयरूपी मोक्षमार्ग-स्वरूप है तथा आप सर्वोच्चस्थान मे रहनेवाले परमेष्ठी है, इसलिए आपको नमस्कार हो।
परमर्धिजुषे धाम्ने परम ज्योतिषे नम:। नम: पारेतम: प्राप्त धाम्ने परतरात्मने॥२३॥
अर्थ- आप मोक्षस्थान को सेवन करनेवाले है, तथा ज्योतिस्वरुप है, इसलिए आपको नमस्कार हो। आप अज्ञानरुपी तमांधकार के पार अर्थात परमज्ञानी प्रकाशरुप है तथा आप सर्वोत्कृष्ट है, इसलिए आपको नमस्कार हो।
नम: क्षीण कलंकाय क्षीणबन्ध ! नमोऽस्तुते। नमस्ते क्षीण मोहाय क्षीणदोषाय ते नम:॥२४॥
अर्थ- आप कर्म – रुपी कलंकसे रहित है, आप कर्मोके बन्धनसे रहित है, आप मोहनीय कर्म नष्ट हुए है तथा आप सब दोषोंसे रहीत है, इसलिए आपको नमस्कार हो।
नम: सुगतये तुभ्यं शोभना गतिमियुषे। नमस्तेऽ तीन्द्रिय ज्ञान् सुखायाऽ निन्द्रियात्मने॥२५॥
अर्थ – आप मोक्षगतिको प्राप्त है, इसलिए आप सुगति है, आप इन्द्रियोको से ना जाने जानेवाले ज्ञान-सुख के धारी है तथा स्वयं भि अतिन्द्रिय अगोचर है, इसलिए आपको नमस्कार हो।
काय बन्धन निर्मोक्षा दकाय नमोऽस्तु ते। नमस्तुभ्य मयोगाय योगिना मधियोगिने॥२६॥
अर्थ – शरीर बन्धन नाम कर्मको नष्ट करने के कारण आप शरीर – रहित कहलाते है, आप मनवचकाययोगसे रहित है और आप योगियोंमेभि सर्वोत्कृष्ट है, इसलिए हे विभो आपको मेरा नमस्कार हो।
अवेदाय नमस्तुभ्यम कषायाय ते नम:। नम: परमयोगीन्द्र वन्दिताङिंघ्र द्वयाय ते॥२७॥
अर्थ – तीनो वेदोंका नाश आपने दसवे गुणस्थान मे हि किया है, इसलिए आप अवेद कहलाते है, आपने कषायोंका भि नाश किया इसलिए आप अकषाय कहलाते है, परम योगीराज भि आपके दोनो चरणकमलो के नमन करते है, इसलिए हे प्रभो, मेरा भि आपको नमस्कार हो।
नम: परम विज्ञान! नम: परम संयम!। नम: परमदृग्दृष्ट परमार्थाय ते नम:॥२८॥
अर्थ – हे परम विज्ञान प्रभू, हे उत्कष्टज्ञान धारी, हे परम संयमधारी आप परम दृष्टीसे परमार्थ को देखते है तथा जगत् कि रक्षा करनेवाले है, इसलिए मेरा आपको नमस्कार हो।
नम्स्तुभ्य मलेश्याय शुक्ललेश्यां शकस्पृशे। नमो भव्येतराऽवस्था व्यतीताय विमोक्षिणे॥२९॥
अर्थ – हे परम देव! आप लेश्यांओसे रहित है, तथा शुध्द परमशुक्ल लेश्याके कुछ उत्तमअंश को स्पर्श करनेवाले है, आप भव्य अभव्य दोनो अवस्थाओंसे रहित है और मुक्तरूप है, इसलिए मेरा आपको नमस्कार है।
संज्ञय संज्ञि द्वयावस्था व्यतिरिक्ताऽ मलात्मने। नमस्ते वीत संज्ञाय नम: क्षायिकदॄष्टये॥३०॥
अर्थ – आप संज्ञी भि नही है, असंज्ञी भि नही है, आप निर्मल शुध्दात्मा धारी है, आप आहार, भय, निद्रा तथा मैथुन इन् चारो संज्ञाओंसे रहित है और आप क्षायिक सम्यकदृष्टी भि है, इसलिए हे करुणानिधान, मेरा आपको नमस्कार हो।
अनाहाराय तृप्टाय नम: परमभाजुषे। व्यतीताऽ शेषदोषाय भवाब्धे पारमीयुषे॥३१॥
अर्थ – आप आहार ना लेते हुए भि सदैव तृप्त रहते है, अतिशय कांतियुक्त हैअ, समस्त दोषोंसे मुक्त है, तथा संसाररूपी समुद्र के पार है, इसलिये आपको मेरा नमस्कार हो।
अजराय नमस्तुभ्यं नमस्ते स्तादजन्मने। अमृत्यवे नमस्तुभम चलायाऽ क्षरात्मने॥३२॥
अर्थ – आप जन्म, बुढापा, मृत्युसे रहित है, अचल है, अक्षरात्मा है इसलिये हे तारक, मेरा आपको नमस्कार हो।
अलमास्तां गुणस्तोत्रम नन्तास्तावका गुणा। त्वां नामस्मृति मात्रेण पर्युपासि सिषामहे ॥३३॥
अर्थ- हे त्रिलोकिनाथ! आपके अनंतगुण है अर्थात आपके सब गुणोंका वर्णन असंभव है, इसलिये केवल आपके नामोंका हि स्मरण करके आपकी उपासना करना चाहते है।
एवं स्तुत्वा जिनं देव भक्त्या परमया सुधी:। पठेदष्टोत्तरं नाम्नां सहस्रं पापशान्तये॥३४॥
अर्थ – इस प्रकार उत्कृष्ट भक्तिपुर्वक जिनेन्द्र देव कि करके सुधीजन आगे आये हुए एक सहस्र ( १००८) नामोंको निरंतर पढे।
॥इति जिनसहस्रनाम प्रस्तावना॥
प्रसिध्दाऽष्ट सहस्रेध्द लक्षणं त्वां गिरांपतिम् । नाम्नामष्टसहस्रेण तोष्टुमोऽभीष्टसिध्दये॥१॥
हे भगवन, हे भवतारक! आप समस्त वाणीयोंके स्वामी है, आपके एक हजार आठ लक्षण प्रसिध्द हैं, इसलिये हम भी अपनी शुभ और इष्ट सिध्दि के लिये एक हजार आठ नामोंसे आपकी स्तुति करते हैं ।
श्रीमान् स्वयम्भू र्वृषभ: शम्भव: शम्भू रात्मभू:।स्वयंप्रभ: प्रभु र्भोक्ता विश्वभूर पुनर्भव:॥२॥
आप अनन्तचतुष्टयरूपी अन्तरंग तथा समवशरणरुपी बहिरंग लक्ष्मीसे सुशोभित है, इसलिए श्री– मान अर्थात श्री युक्त कहलाते है।
आप अनेक कारणोंसे स्वयंभू कहलाते है, जैसे आप अपने आप उत्पन्न हुए है, आप बिनागुरुके समस्त पदार्थोंके जानते है, आप अपने हि आत्मामे रहते है, आपने अपने आप हि स्वयम् का कल्याण किया हुआ है, आप अपने हि गुणोसे वृध्दीको प्राप्त हुए है, अथवा आप केवलज्ञानदर्शनद्वारा समस्त लोकालोक मे व्याप्त है, अथवा आप भव्य जीवोंको मोक्षलक्ष्मी देनेवाले है, अथवा समस्तद्रव्योंके समस्त पर्यायोंको आप जानते है, अथवा आप अनायास हि लोकशिखर पर जाकर विराज मान होते है।
आप वृष=धर्म से भा= सुशोभित है, इसलिये आप वृषभ है।
आपके जन्म से हि सब जीवोंको सुख मिलता है, अथवा आप सुखसे उत्पन्न हुए है, अथवा आप का भव, शं=अत्युत्कृष्ट है, इसलिए आप शंभव = संभव कहलाते है।
आप मोक्षरुप परमानंद सुख देने वाले है, इसलिए शंभु कहलाते है।
आप अपने आत्मा के द्वारा कृतकृत्य हुए है, अथवा आप शुध्द–बुध्द चित् चमत्कारस्वरुप आत्मा मे हि सदैव रहते है, अथवा ध्यान के द्वारा योगीयोंकि आत्मा मे प्रत्यक्ष इसलिए आप आत्मभू कहे जाते है।
आपको देखने के लिये प्रकाश की जरूरत नही अर्थात् आप स्वयम् ही प्रकाशमान हैं, आप स्वयम् की प्रभा मे दृग्गोचर होते हैं, इसलिए आप स्वयंप्रभ कहे जाते हैं ।
आप सबके स्वामी है, इसलिए प्रभू हो।
परमानंदस्वरूप सुखका उपभोग करनेवाले है इसलिए भोक्ता हो।
आप समस्त विश्व मे व्याप्त है, या प्रकट है और उसे एक साथ जानते भी हैं, इसलिए विश्वभू हो।
आपका जन्ममरणरूपी संसार शेष नहीं है, अर्थात् आप फिरसे जन्म नही लेंगे, इसलिए अपुनर्भव भि है।
विश्वात्मा विश्व लोकेशो विश्व तश्च क्षुरक्षर:। विश्वविद् विश्व विद्येशो विश्व योनिर नश्वर॥३॥
जैसा कोई अपने आप को जानता हो, वैसेहि आप विश्व को जानते है, अथवा आप विश्व अर्थात केवलज्ञानस्वरुप है, इसलिए आप विश्वात्मा कहे जाते है।
समुचे विश्वके समस्त प्राणीयोंके आप स्वामी अर्था इश है, इसलिए आप विश्वलोकेश के नामसे जाने जाते है।
आपके केवलज्ञान् रुपी चक्षु समस्त विश्व को देख सकते है, इसलिए आप विश्वतचक्षु है।
आप कभी नाश होनेवाले नही है, इसलिये आप अक्षर है।
संपुर्ण विश्व आप को विदित है, आप उसे संपुर्ण तरह से जानते है, इसलिये आप विश्ववित है।
विश्व कि समस्त विद्याए आपको अवगत है, अथवा सकल विद्याओंके आप ईश्वर है, अथवा आप सुविद्य गणधरादियोंके स्वामी है, इसलिये आप विश्वविद्येश कहे जाते है।
सभी पदार्थोंका ज्ञान देने वाले है, इस अभिप्रायसे आप समस्त पदार्थोंके जनक है, इसलिए विश्वयोनि कहे जाते है।
आपके स्वरुप का कभी विनाश नही होगा इसलिए हे दयानिधान आप अविनश्वर भि कहे जाते है।
विश्वदृश्वा विभुर्धाता विश्वेशो विश्वलोचन:। विश्वव्यापी विधिर्वेधा शाश्वतो विश्वतोमुख:॥४॥
समस्त लोकालोक को देखनेसे आप विश्वदृश्वा कहलाते है।
आप केवलज्ञान के द्वारा समस्त जगत् मे व्याप्त है, तथा आप जीवोंको संसारसे पार कराने समर्थ है तथा परम् विभुति युक्त है, इसलिए आप विभु कहे जाते है।
करुणाकर होनेसे आप सब जीवोंकि रक्षा करते है, तथा चतुर्गति के जिवोंका परिभ्रमणसे मुक्ति दाता है, इसलिए आप धाता कहे जाते है।
जगतके स्वामी होनेसे आप विश्वेश है।
आप के उपदेश द्वारा हि सब जीव सुख कि प्राप्ति का उपाय अर्थात मोक्षमार्ग देख पाते है, इसलिए आप विश्वलोचन कहे जाते है।
समुद्घघात के समय आप के आत्मप्रदेश समस्त लोक को स्पर्श करते है, तथा केवलज्ञान से तो आप समस्त विश्व मे प्रत्यक्ष रहनेसे आप विश्वव्यापी कहे गये है।
मोहांधकार को नष्ट करनेवाले है, इसलिए विधु कहे गये है।
धर्म के उत्पादक रहने से आप वेधा कहलाते है।
आप नित्य है, सदैव है, विद्यमान है, आप का नाश नही हो सकता है, इसलिये शाश्वत कहलाते है।
जैसे समवशरण मे आपके मुख चारो दिशाओंमे दिखते है, तथा आपका समवशरण मे दर्शनमात्र जीवोंके चतुर्गति के नाश का कारण बनता है, अथवा जल (विश्वतोमुख) के समान कर्मरुपी मल को धोनेवाले है, इसलिये आप विश्वतोमुख कहे जाते है।
विश्वकर्मा जगज्ज्येष्ठो विश्वमुर्ति र्जिनेश्वर:। विश्वदृग् विश्व भूतेशो विश्वज्योति रनीश्वर:॥५॥
३०. आपके अनुसार कर्महि संसार अर्थात विश्व चलनेका कारण है, तथा आपने विश्व को उपजिवीका के लिए छ्ह कर्मोंका उपदेश दिया, इसलिए आप विश्वकर्मा कहे गये।
३१. आप जगत् के समस्त प्राणियोमें ज्येष्ठ ( ज्ञानसे, ज्ञानवृध्द ) है, इसलिए जगज्ज्येष्ठ कहे जाते है।
३२. आपमे हि समस्त विश्व के ज्ञान कि प्रतिमा अर्थात मूर्ती है, इसलिए आप विश्वमूर्ती कहे गये है।
३३. समस्त अशुभकर्मोंका नाश करनेकि वजह से ४ से १२ गुणस्थान वाले जीवोंको जिन कहते है आप इन सब जिनोंकेभि ईश्वर है, इसलिये आप जिनेश्वर कहे जाते है।
३४. समस्त जगत् को एक साथ देखनेसे विश्वदृक् हो।
३५. सब भूत के ईश्वर होनेसे ( सर्व प्राणीयोंके) तथा सर्व जगत् कि लक्ष्मीके ईश होनेसे आप विश्वभूतेश कहे जाते हो।
३६. जगत्प्रकाशी आप विश्वज्योति भि कहे जाते है।
३७. आप के कोई गुरू तथा स्वामी नही है, इसलिये आप अनीश्वर भि कहे जाते है।
जिनो जिष्णु रमेयात्मा विश्वरीशो जगत्पति:।अनंत जिद चिन्त्यात्मा भब्य बन्धुरऽ बन्धन:॥६॥
३८. आपने कर्म शत्रु तथा कषायोंको जित लिया है, इसलिये आप “जिन“ है।
३९. आप विजयी है, इसलिए आप “जिष्णु“ है।
४०. आप के आत्मा कि कोई सिमा नही, इसलिये आप “अमेयात्मा“ भि कहे जाते है।
४१. आप समस्त विश्व के आराध्य है, इस लिये ” विश्वरीश“ है।
४२. जगत के भि स्वामी है, इसलिए “जगत्पति“ है।
४३. मोक्ष मे बाधा लाने वाले ग्रह अनंत पर विजयी होने से, तथा अनंतज्ञान को पाने से, आप “अनंतजित“ भि कहलाते है।
४४. आप मे आत्मा का यथार्थ स्वरुप क्या होगा इसकि कल्पना तथा चिंतन करना कि अन्य प्राणियोंमे नही है, इसलिए हे प्रभू, आप “अचिन्त्यात्मा ” हो।
४५. आप सब जीवोंपर बन्धुसमान करुणा रखते है, इसलिये आप “भव्यबन्धू “कहलाते है।
४६. मोक्ष जाने से रोकनेवाले घातिया कर्मोसे जो इतर प्राणी बंधे हुए है, वैसे आप बंधे हुए नही है, इसलिये आप “अबन्धन “ भि कहे जाते है।
युगादि पुरुषो ब्रह्मा पंच ब्रह्म मय: शिव:। पर: परतर: सूक्ष्म: परमेष्ठी सनातन:॥७॥
४७. कर्मभूमीमे पुरुषार्थ करना होता है, और आप कर्मभूमी के प्रारंभ अर्थात उस धारणा से युग के प्रारंभ मे उत्पना हुए है, इसलिए आप ” युगादिपुरुष” कहलाते है।
४८. आपसे हि यह विश्व बढा है इसलिये आप “ब्रह्मा“ कहे जाते है।
४९. आप अकेलेहि पंच परमेष्ठीस्वरुप है, इसलिये आप “पंचब्रह्म“ कहे जाते है।
५०. आप परम शुध्द है, इसलिये “शिव“ भि कहे जाते है।
५१. आप जीवोंको संसार के पार मोक्षतक पहुंचाते है, इसलिए ” पर “ हो।
५२. किसी भि धर्मोपदेशकसे श्रेष्ठ होनेसे “परतर“ कहे जाते है।
५३. आप प्रथम चारों ज्ञानोंसेभि नहि जाने जा सकते है और मात्र केवलज्ञान हि आपके यथार्थ स्वरुप का ज्ञान दे सकता है, इस वजह से “सूक्ष्म“ कहलाते है।
५४. आप परम स्थान मोक्षमे स्थित है, इसलिए “परमेष्ठी “ भि कहे जाते है।
५५. आप चिरंतन नित्य सत्यस्वरुप है, इसलिये “सनातन“ भि कहे जाते है।
स्वयं ज्योति रजोऽ जन्मा ब्रह्म योनिरऽ योनिज। मोहारि विजयी जेता धर्मचक्री दयाध्वज:॥८॥
५६. आपको देखनेकेलिये प्रकाश कि जरुरत नहि है, क्योंकि आप स्वयं हि प्रकाशरूप है, इसलिए “स्वयंज्योति“ कहे जाते है।
५७. आप फिरसे उत्पन्न नहि होगे, इसलिए “अज” कहे जाते है।
५८. आप अभि फिर शरीर धारण नही करेंगे, इसलिए “अजन्म“ कहलाते है।
५९. ब्रह्म अर्थात सम्यक दर्शन ज्ञान चारित्र्य आपसे उत्पन्न होता है, इसलिए “ब्रह्मयोनि“ कहे जाते है।
६०. ८४ लाख योनियोंसे रहित होके आप मोक्षालय मे उत्पन्न होते है, इसलिये ” अयोनिज “ अथवा जब आप सिध्दशीला पर उत्पन्न होंगे, तो आपका जन्म योनिसे नही अपितु ८४ लाख योनिसे रहित होनेसे वहाँ हुआ है।
६१. सबसे बडा शत्रुकर्म मोह पर विजय पानेसे आप “मोहारिविजयी“ कहे जाते है।
६२. आपने कर्मरिपुओंको परास्त कर विजय पायी है, इसलिये आप” जेता“ कहलाते है।
६३. आप जहा जहा जाते है, विहार करते है, धर्मचक्र सदैव आपके सामने चलते रहता है, अर्थात आप धर्म के चक्र को सब जगह साथ लेकर चलते है इसलिएअ आप “धर्मचक्री“ नामसे भि जाने जाते है।
६४. आपकि उत्तम धर्मध्वजा सब प्राणियोंपर दया करने का संदेश देती है, दया भावना सिखाती है, इसलिये आप “दयाध्वज” भि कहे जाते है।
प्रशान्तारि रनन्तात्मा योगी योगीश्वराऽ र्चित:। ब्रह्म विद् ब्रह्म तत्वज्ञो ब्रह्मोद्या विद्यतीश्वर: ॥९॥
६५. आपने कर्मरुपीशत्रुओंके शान्त किया है, अथवा आपके कर्मशत्रू शांत हुए है, इसलिये आप “प्रशान्तारि“ कहलाते है।
६६. आपके आत्मा मे अनंत गुण है और आपके आत्मा का नाश कभी नही होगा, अथवा आपकि आत्मा अनंतकाल तक यथास्थित रहेगी इसलिये आप “अनन्तात्मा“ कहे जाते है।
६७. योग कर्म के आस्रव का कारण है, उस योगका हि आपने निरोध किया है, इसलिए आप ” योगी“ कहलाते है।
६८. गणधरादि योगीश्वर भि आप कि पूजा अर्चना करते है, इसलिये आप “योगीश्वराऽर्चित“ भि कहे जाते है।
६९. आत्मा का यथार्थ स्वरूप जानते है, इसलिये “ब्रह्मवित्“ है।
७०. ब्रह्म के उत्पत्ती कारण जानके कामदेव का नाश करने कि वजहसे आप ” ब्रह्मतत्वज्ञ“ है।
७१. आत्मा के समस्त तत्त्वोंको अर्थात आत्मविद्या जानने के कारण “ब्रह्मोविद्यावित्“ है।
७२. रत्नत्रय को सिध्द करने वाले यतियोंमेभि आप श्रेष्ठ रहनेसे “यतीश्वर” भि कहलाते है।
शुध्दो बुध्द: प्रबुध्दात्मा सिध्दार्थ: सिध्द शासन:। सिध्द: सिध्दान्त विद्ध्येय: सिध्द साध्यो जगध्दित: ॥१०॥
७३. जब कषाय खत्म हो जाते है, तब शुध्दावस्था प्राप्त होती है, इस वजहसे आप “शुध्द“ कहे जाते है।
७४. सब जानने से आप “बुध्द“ हो।
७५. आत्मा का स्वरुप जानने से “प्रबुध्दात्मा“ हो।
७६. चारो पुरुषार्थ ( धर्म अर्थ काम मोक्ष) को सिध्द करनेसे अथवा सिध्दत्व (मोक्ष) हि एकमात्र उद्देश होनेसे, अथवा सात तत्व तथा नौ पदार्थोंकि सिध्दता करनेसे तथा रत्नत्रय् सिध्द करने के कारण से आप “सिध्दार्थ“ कहलाते है।
७७. आपका शासन हि एक मात्र एकमेव है यह सिध्द होनेसे आप ” सिध्दशासन“ कहलाते है।
७८. आपने कर्मोंका नाश करके “सिध्द“ कहलाते है।
७९. द्वादशांगसिध्दांतोंमे पारंगत होने से आप ” सिध्दांतविद्“ है।
८०. योगी लोगोंके ध्यान का विषय होनेसे आप “ध्येय“ कहे जाते है।
८१. आप सिध्द जाति के देवोंद्वारा पुजे जाने से ” सिध्यसाध्य“ कहे जाते है।
८२. आप समस्त जगत के हितैषी है, उपकारक है इसलिये आप “जगध्दित्“ कहलाते है।
सहिष्णु रच्युतोऽ नन्त: प्रभ विष्णु र्भवोद्भव:। प्रभूष्णु रजरोऽ जर्यो भ्राजिष्णुर्धी श्वरोऽ व्यय: ॥११॥
८३. आपने परिषह समभावसे सहन किये है, इसलिये “सहिष्णु“ कहलाते है।
८४. आप आत्मस्वरुपसे अथवा स्वयंलीन रहनेसे कभि च्युत् नही होते इसलिये “अच्युत“ कहलाते गये है।
८५. आपके गुण गिने नही जाते, अर्थात आपके गुणोका अंत नही इसलिए “अनंत“ कहे गये है।
८६. आप प्रभावी है, शक्तिशाली है इसलिए “प्रभविष्णु“ के नामसे जाने जाते है।
८७. इस जन्म मे आप मोक्ष प्राप्त करेंगे अर्थात आपके सर्व भवोंमे यह भव उत्कृष्ट है, इसलिए आपको “भवोद्भव“ कहा जाता है।
८८. शतेंद्र के प्रभु होने का आपका स्वभाव है, इसलिए आप “प्रभूष्णु“ है।
८९. आप अनंतवीर्य है, इसलिये आप वृध्द नही होंगे, इसलिये आपको” अजर“ कहा गया है।
९०. आपकि मृत्यु अथवा अंत नही होगा इसलिये “अजर्य“ हो।
९१. आप करोडो सूर्योंके एकत्रित आभा से अधिक कांतिमान है, इसलिये “भ्राजिष्णु“ हो।
९२. पुर्ण ज्ञान के अधिपति होनेसे “धीश्वर“ हो।
९३. आप कभी समाप्त नही होते, अर्थात कम अधिक भि नही होंगे अर्थात आप का व्यय नही होगा इस कारण से आप “अव्यय“ भि कहे जाते है।
विभाव सुर सम्भूष्णु: स्वयं भूष्णु: पुरातन:। परमात्मा परंज्योति स्त्रि जगत्परमेश्वर: ॥१२॥
९४. आप कर्म को जलाने वाले तेजसे अथवा मोहांधकार को नष्ट करनेवाले सूर्यसे अथवा धर्मामृत वर्षा करनेवाले चंद्र से अथवा रागद्वेषरूपी विभाव परिणाम नाश करनेसे अर्थात अनेक कारणोंसे “विभावसु“ कहे जाते है।
९५. आपके स्वभावमे अब संसारमे उत्पन्न होना नहि है, इसलिये “असंभूष्णु“ कहलाते है।
९६. आप अपने आप हि प्रकाशीत हुए है, अर्थात प्रकट हुए है, इसलिये आप “स्वयंभूष्णु“ कहे जाते है।
९७. अनदि सिध्द होनेसे “पुरातन“ हो।
९८. आत्मा के परमोत्कृष्ट होने से “परमात्मा“ हो।
९९. मोक्षमार्ग को प्रकाशित करनेवाले होनेसे “परमज्योती“ हो।
१००. तीनो लोक के स्वामी होनेसे आप “त्रिजगत्परमेश्वर“ भि कहे जाते है।
॥इति श्रीमदादिशतम्॥
दिव्यभाषापतिर्दिव्य: पूतवाक्पूतशासन:। पूतात्मा परमज्योतिर्धर्माध्यक्षो दमीश्वर॥१॥
१०१. आपके लिए देव भाषा का अतिशय है, इस वजह से आप “दिव्यभाषापति“ कहलाते है।
१०२. मनोहारि तथा स्वयंप्रकाशित होनेसे “दिव्य“ कहे जाते है।
१०३. आपके वाणी मे कोई भि दोष नही है, इससे आप “पूतवाक्“ हो।
१०४. आपका शासन निर्दोष है, इससे “पूतशासन“ भि कहे जाते है।
१०५. आपका आत्मा पवित्र होनेसे तथा आप भव्यजीवोंके आत्मा के पवित्र करनेवाले रहनेसे “पूतात्मा“ है।
१०६. आपका केवलज्ञानरूपी तेज सर्वोत्कृष्ट होनेसे आप ” परमज्योति“ कहे जाते है।
१०७. धर्म के अधिकारी होनेसे “धर्माधक्ष्य“ कहे जाते है।
१०८. इन्द्रियोंके निग्रह करने के कारण अथवा इंद्रियोंके दमन करने से आप “दमीश्वर“ है।।
श्रीपति र्भगवान अर्हन्नरजा विरजा: शुचि:। तीर्थकृत् केवलीशान: पूजार्ह स्नातकोऽ मल:॥२॥
१०९. मोक्षादि लक्ष्मीके स्वामी होनेसे ” श्रीपति “ हो।
११०. महाज्ञानी होने से “भगवान्“ है।
१११. सबके आराध्य होनेसे “अर्हन्“ है।
११२. कर्मरुपी कलुषरहित होनेसे “अरजा“ है।
११३. आप जीवोंका कर्ममल रज दूर करनेवालेसे “विरजा“ कहे जाते है।
११४. आप बाह्यंतर ब्रह्म पालन करनेसे तथा बाह्य मलमूत्र, मोहरहित होनेसे “शुचि“ है।
११५. आप धर्मतीर्थ के प्रवर्तक रहनेसे “तीर्थकृत्“ कहलाते है।
११६. आप केवलज्ञानीहोनेसे “केवली“ है।
११७. सबके ईश्वर होनेसे “इशान“ हो ।
११८. आठ प्रकारकि पूजा अर्थात अर्घ्य के योग्य होनेसे “पूजार्ह“ हो।
११९. सम्पूर्ण ज्ञान के धारक होने “स्नातक“ हो ।
१२०. धातू उपधातू के रहीत होने से आप “अमल” कहे जाते है।
अनंतदिप्तिर्ज्ञानात्मा स्वयंबुध्द: प्रजापति:। मुक्त: शक्तो निराबाधो निष्कलो भुवनेश्वर:॥३॥
१२१. आपके शरीर तथा ज्ञान दोनो कि दिप्ती अनंत है, इसलिए आप “अनंतदिप्ति“ कहे जाते है।
१२२. आप शुध्द ज्ञानस्वरुप आत्मा के धारि है, इसलिये आपको “ज्ञानात्मा“ कहा जाता है।
१२३. आपके मोक्षमार्ग मे स्वयं हि प्रेरित् हुए है, अर्थात आपने गुरु के बगैर हि ज्ञान कि प्राप्ति स्वयं चिंतन से कि है, इसलिये आप “स्वयंबुध्द“ है।
१२४. आप तीन लोकोके जीवोको उपदेश देते है, तथा तीन लोक के स्वामी है, इसलिये आप “प्रजापति“ है।
१२५. आपने घातिया कर्मोसे अर्थात पुन्: संसार भ्रमण से मुक्ति पायी है, इस कारण से आप “मुक्त“ है।
१२६. अनंतवीर्य के धारी होने से “शक्त“ है।
१२७. दु:ख अथवा कर्म बाधासे रहित होनेसे “निराबाध“ हो।
१२८. शरीर तो आपका अब मात्र नाम के लिये, अर्थात कोई भि शरीर के वजहसे होनेवाला परिषह आपका नही होने से “निष्कल“ के नामसे अर्थात जिनका पार्थिव नही होता ऐसेभि जाने जाते है।
१२९. त्रिलोकिनाथ होने से “भुवनेश्वर” कहे जाते है।
निरंञ्जनो जगज्ज्योति र्निरुक्तोक्ति र्निरामय:। अचल स्थिति रक्षोभ्य: कूटस्थ स्थाणु रक्षय:॥४॥
१३०. कर्मरूपी कलुष अर्थात अञ्जन के रहित होनेसे “निरञ्जन“ हो।
१३१. जग के लिये आप ज्ञान कि ज्योति है, जो समस्त जीवोंके लिये मार्गप्रकाशक है, इसलिये “ज अगज्ज्योति“ हो।
१३२. आपके वचनोके विरुध्द कोई प्रमाण नहि, कोई उक्ति आपके वचन को परास्त नही करती, इसलिये “निरुक्तोक्ति“ हो।
१३३. रोग व घर्म ना होने से “निरामय“ हो।
१३४. आप अनंत काल बीतने पर भि कायम, अचल रहते है, आप कालातित है इसलिये ” अचलास्थिती“ है।
१३५. आप क्षोभरहित है, अर्थात आपकि शांति अभंग है, आप अनाकुल है इसलिए आपको “अक्षोभ्य“ कहा जाता है।
१३६. सदा नित्य रहनेसे, लोकाग्रमे विराजमान रहनेसे आपको “कूटस्थ“ कहा जाता है।
१३७. आपके गमनागमन का कोई हेतु नही, कारण नही, आप सदैव स्थिर है, इसलिये “स्थाणु“ है।
१३८. क्षयरहित होनेसे, या हीनाधिक ना होनेसे आप “अक्षय“ है।
अग्रणी ग्रामणी र्नेता प्रणेता न्याय शास्त्रकृत्। शास्ता धर्मपति र्धर्म्यो धर्मात्मा धर्म तीर्थकृत्॥५॥
१३९. आपसे हि तीर्थ शुरु होता है, अर्थात आप तिनो लोकोंमें मुख्य होनेसे “अग्रणी“ हो।
१४०. गणधरोंके के मुख्य होनेसे “ग्रामणी“ हो।
१४१. अग्र मे रहकर प्रजा को धर्म मार्ग पर चलानेसे “नेता“ हो।
१४२. धर्मशास्त्र को प्रथम उद्घाटित करनेसे “प्रणेता“ कहे जाते है।
१४३. आप नय तथा प्रमाण से द्रष्टा शास्त्रोके वक्ता है, इसलिए ” न्यायशास्त्रकृत“ है।
१४४. सबको धर्म का शासनसे चलने का उपदेश देनेवाले “शास्ता“ हो।
१४५. दशविध धर्म के स्वामि तथा व्याख्याता होनेसे “धर्मपति“ हो।
१४६. स्वयं हि धर्म का साक्षात् स्वरूप होनेसे ” धर्म्य“ हो।
१४७. आपके आत्मा का स्वरूपहि धर्मस्वरुप रहनेसे “धर्मात्मा“ है ।
१४८. धर्म के तिर्थ के प्रवर्तक होनेसे “धर्मतीर्थकृत“ कहलाते है।
वृषध्वजो वृषाधीशो वृषकेतु र्वृषायुध:। वृषो वृषपति र्भर्ता वृषभांको वृषोद्भव:॥६॥
१४९. आपके ध्वजपर वृषभ का चिन्ह होनेसे अथवा आप स्वयं धर्म कि ध्वजा के रुप मे आकाश मे फहरानेसे “वृषध्वज“ हो।
१५०. धर्म के स्वामी होनेसे “वृषाधीश“ हो।
१५१. धर्म को तीन लोकमे प्रसिध्द करनेसे “वृषकेतु“ है।
१५२. कर्म के नाश करने हेतु आपने मात्र धर्मके आयुध धारण किये है, इसलिये “वृषायुध“ हो।
१५३. धर्म कि वृष्टी करने वाले आप “वृष“ हो।
१५४. धर्मके नायक – स्वामि होनेसे “धर्मपति“ हो।
१५५. सबके स्वामी होनेसे “भर्ता“ हो।
१५६. बैल का चिन्ह होनेसे अथवा बैल आपका लांछन होनेसे आप “वृषभांक“ हो।
१५७. माता के स्वप्नमे शुभ चिन्ह वृषभ दिखनेसे एवं उसके उपरांत आप पैदा हुए है, इसलिये आप “वृषभोद्भव“ है।
हिरण्यनाभि र्भूतात्मा भूतभृद् भूतभावन:। प्रभवो विभवो भास्वान् भवो भावो भवान्तक:॥७॥
१५८. आप हिरण्यगर्भ थे, नाभिराज के संतति है, इसलिये आप “हिरण्यनाभि“ कहलाते है।
१५९. आप अविनाशी है, यथार्थ आत्मस्वरूप है, इसलिए आपको “भूतात्मा“ कहा जाता है।
१६०. आप समस्त जीवोंकि रक्षा बंधू के समान “भूतभृत“ कहलाते है।
१६१. यथार्थ मंगलस्वरूप भावना के होनेसे “भूतभावन“ है।
१६२. आपके जन्मसे आपके वंश कि वृध्दी हुई है, आपका जन्म प्रशंसनीय तथा प्रभावशाली है, इसलिये “प्रभव“ हो।
१६३. आपके भव समाप्त हुए है, अर्थात यह आपका अंतीम भव है, इसलिए “विभव“ हो।
१६४. आप केवलज्ञान रूप कांतिसे प्रकाशमान है इसलिये “भास्वान“ हो।
१६५. समय समयसे आपमे उत्पाद होता रहता है, इसलिये “भव“ हो।
१६६. आत्मस्वभाव मे सदैव लीन होनेसे “भाव“ है।
१६७. समस्त भवोंका नाश करनेवाले होनेसे आपको “भवान्तक” कहा जाता है।
हिरण्यगर्भ: श्रीगर्भ: प्रभूत विभवोद्भव: स्वयंप्रभु प्रभूतात्मा भूतनाथो जगत्प्रभु:॥८॥
१६८. गर्भावतर के समय हिरण्य कि वृष्टी होनेसे “हिरण्यगर्भ“ अथवा आपकि माता को गर्भकाल मे कोई भि वेदना तथा दु:ख नहि हुआ इसलिये आपको “हिरण्यगर्भ” कहा जाता है।
१६९. आपके गर्भमे होते हुए श्री आदि देवीयाँ आपके माता कि सेवा करती थि अथवा आपके अंतरंग के स्फुरायमान लक्ष्मी विराजमान है, इसलिये “श्रीगर्भ” हो।
१७०. भवोका नाश करनेवाले मे आप प्रभु है, अथवा आप अनन्तविभूति के स्वामी है इसलिये “प्रभूतविभव“ है।
१७१. अब जन्मरहित है, इसलिये “अभव“ है।
१७२. स्वयं समर्थ होनेसे अथवा आपहि खुद आपके स्वामी होनेसे अथवा आपका कोई स्वामी ना होनेसे आपको “स्वयंप्रभु” भि कहा जाता है।
१७३. केवलज्ञान के द्वारा आप सब आत्माओमे व्याप्त होनेसे अर्थात जो भि जिसकि अंतर मे है, आपके जानने से “प्रभूतात्मा“ है।
१७४. समस्त जीवोंके नाथ अथवा स्वामी होने से ” भूतनाथ“ हो।
१७५. तीनो लोक अर्थात सम्पुर्ण जगत के स्वामी होनेसे आप “जगत्पति” भि कहे जाते है।
सर्वादि: सर्वदृक् सार्व: सर्वज्ञ: सर्वदर्शन:। सर्वात्मा सर्वलोकेश: सर्ववित् सर्व लोकजित्॥९॥
१७६. आप सब मे प्रथम होनेसे “सर्वादि“ है ।
१७७. केवलज्ञान द्वारा लोकालोक सहज हि देखनेसे “सर्वदृक्“ है।
१७८. कल्याणकारी हितोपदेश देनेसे “सार्व“ है।
१७९. सर्व विश्व का सर्व विषय एक साथ जाननेसे “सर्वज्ञ” है।
१८०. सर्वार्थ से सम्यक दर्शन धारी होनेसे “सर्वदर्शन“ है ।
१८१. समस्त जगत के जीवोंके प्रिय रहनेसे “सर्वात्मा“ है।
१८२. समस्त लोक अर्थात तीन लोक के स्वामी होनेसे “सर्वलोकेश“ है।
१८३. आपको सर्व विद् है, अर्थात ज्ञात है, इसलिये “सर्वविद्“ हो।
१८४. तीन लोक को जीतनेसे या अनंतवीर्य होनेसे आपको “सर्वलोकजित्“ भि कहा जाता है।
सुगति: सुश्रुत: सुश्रुत सुवाक सुरि र्बहुश्रुत:। विश्रुतो विश्वत: पादो विश्वशिर्ष: शुचिश्रवा:॥१०॥
१८५. आपका ज्ञान प्रशंसनीय है, सुगति देनेवाला है, तथा आपकि अगली गति पंचम गति अर्थात मोक्ष है, इसलिए आपको “सुगति“ कहते है।
१८६. आपका ज्ञान अत्युत्तम है तथा आपके बारेमे सबने सुना है, अर्थात आप प्रसिध्द है इसलिये “सुश्रुत:” हो।
१८७. आप समस्त भक्तोंकि भावना अच्छे से सुनते है इसलिये “सुश्रुत्“ है।
१८८. आपकी वाणी हितोपदेशी है तथा सप्तभंगरूप होनेसे सम्पुर्ण है इसलिये “सुवाक्“ है।
१८९. सबके गुरु होनेसे “सुरि“ हो।
१९०. शास्त्रोंमे पारंगत होनेसे “बहुश्रुत“ हो।
१९१. आप जगत मे प्रसिध्द है तथा कोई भि शास्त्र मे आपका यथार्थ वर्णन ना पाया जानेसे आप “विश्रुत“ हो।
१९२.
१९३. लोक के अग्र मे जाकर आप विराज मान होने वाले है, इसलिये “विश्वशिर्ष“ हो।
१९४. आप का ज्ञान निर्दोष है, निर्मल है, शुचित है, इसलिये आपको “शुचिश्रवा“ भि कहा जाता है ।
सहस्रशीर्ष: क्षेत्रज्ञ: सहस्राक्ष: सहस्रपात्। भूतभव्य भवद्भर्ता विश्वविद्या महेश्वर:॥११॥
१९५. आप के मानो सहस्र शीर्ष है, अर्थात सहस्र प्रकारके बुध्दीके धारक है इसलिए “सहस्रशीर्ष“ हो।
१९६. आप लोकालोक समस्त क्षेत्र के समस्त्र पदार्थोंके समस्त पर्यायोंको जानते है, या आप समस्त क्षेत्रोंमे केवलज्ञान द्वारा व्याप्त है, इसलिये “क्षेत्रज्ञ“ है।
१९७. आप मानो सहस्र नेत्रोंसे देख रहे हो, अर्थात आपके दृष्टी अपार, अथाह है, इसलिये “सहस्रदर्शी“ है।
१९८. अनंतवीर्य होनेसे आपके बल के बारेमे आपको “सहस्रपात्“ भि कहा जाता है।
१९९. वर्तमान, भूत तथा भविष्य तीनो काल के स्वामी तथा तिनो काल के जीवोंके बंधुसमान होनेसे “भूतभव्यभवद्भर्ता“ हो।
२००. समस्त विश्वके समस्त श्रेष्ठ विद्याओमें पारंगत होनेसे तथा आपके समान इन विद्याओ मे कोई और पारंगत नही है, इसलिये ” विश्वविद्यामहेश्वर“ भि आपको हि कहा जाता है, यह नाम आपके अलावा किसी और का हो हि नही सकता ॥
॥इति दिव्यादिशतम्॥
स्थविष्ठ: स्थविरो ज्येष्ठ: पृष्ठ: प्रेष्ठो वरिष्ठधी: । स्थेष्ठो गरिष्ठो बंहिष्ठ: श्रेष्ठोऽ णिष्ठो गरिष्ठगी:॥१॥
२०१. आपने मानो समस्त जीवोंको अपने उपदेश द्वारा अवकाश दिया है, अर्थात कैसे रहना बताया है, ऐसि स्थिर शक्ति होनेसे आपको “स्थविष्ठ“ कहा जाता है।
२०२. अनादि अनंत होनेसे आप अत्यंत वृध्द है, इसलिये “स्थविर“ भि कहे जाते है।
२०३. आप सब जीवोंमे मुख्य है, अर्थात गुण, बल, सुख, ज्ञान से आप सबमे मुख्य है, इसलिये आप ” ज्येष्ठ“ हो।
२०४. सबसे अग्रसर या नेता होनेसे “पृष्ठ“ हो।
२०५. सबमे प्रिय होनेसे “प्रेष्ठ“ हो।
२०६. अतिशय बुध्दि के धारी होनेसे ” वरिष्ठधी“ हो।
२०७. अत्यंत स्थिर अर्थात अविनाशी होनेसे “स्थेष्ठ“ हो।
२०८. सबके गुरु होनेसे या सबके महान होनेसे “गरिष्ठ“ हो।
२०९. आपके दॄष्य स्वरुपसे परे अनंत स्वरुप होनेसे अथवा अनन्त गुणोके धारक होनेसे “बंहिष्ठ“ हो।
२१०. सबसे प्रशंसनीय होनेसे अथवा सबमे महान होनेसे “श्रेष्ठ“ हो।
२११. मात्र केवलज्ञान के गोचर होनेसे अथवा अतिशय सुक्ष्म होनेसे “अनिष्ठ“ हो।
२१२. आपकी कल्याणकारी हितोपदेशी वाणी सबको पुज्य होनेसे आपको “गरिष्ठगी“ भि कहा जाता है।
विश्वभृद् विश्वसृड् विश्वेड् विश्वभृग् विश्वनायक:। विश्वाशी र्विश्वरुपात्मा विश्वजित् विजितान्तक:॥ २॥
२१३. चतुर्गति विश्व अर्थात संसार का नाश करनेसे आपको “विश्वभृद्“ हो।
२१४. विश्व के विधी विधान के सर्जन होनेसे “विश्वसृड्“ हो।
२१५. तीन लोकोंमे श्रेष्ठ होनेसे या तीन लोक रुपी भुवन के स्वामी होनेसे “विश्वेट्“ हो।
२१६. विश्व के रक्षक अर्थात कर्मशत्रुसे रक्षा करनेवाला उपदेश देनेसे “विश्वसृक्“ हो।
२१७. सब विश्व के नाथ होनेसे अग्रणीअ होनेसे उनका नेता रहनेसे “विश्वनायक“ हो।
२१८. समस्त प्राणीयोंका विश्वासयोग्य होनेसे तथा अपने केवलज्ञानसे तीन लोक मे निवास करनेसे “विश्वाशी“ हो।
२१९. सम्पुर्ण विश्व का स्वरुप आपके आत्मा मे होनेसे अथवा केवलज्ञान जो समस्त विश्वरुपी है, जो आपके आत्मा का स्वरुप होनेसे “विश्वरुपात्मा“ हो।
२२०. आपके सदैव चलने वाले संसारको अपने आत्मस्वरुपसे जित लिया है, अर्थात आपके समक्ष संसार भि हार जाने से ” विश्वजित्“ हो।
२२१. अन्तक अर्थात नाश करनेवाले काल के उपर विजय पानेसे आपको “विजितान्तक“ भि कहा जाता है।
विभावो विभयो वीरो विशोको विजरो जरन्। विरागो विरतोऽसंगो विविक्तो वीतमत्सर:॥ ३॥
२२२. किसी भि तरह के मनोविकार अर्थात भाव नही रहने से “विभाव“ हो।
२२३. भयरहित होनेसे अर्थात आपके शत्रुहि नही है, तब भय कहासे ” विभय“ हो।
२२४. अनंतवीर्य होनेसे “वीर” हो।
२२५. शोक अर्थात दु:ख रहित होनेसे अर्थात अनंतसुख के स्वामि होनेसे “विशोक” हो।
२२६. जरा रहित अर्थात आप् कदापि जरावस्था को प्राप्त नही होंगे इसलिये ” विजर” हो।
२२७. लेकिन अनादिकालीन होनेसे “जर – व्रुद्ध” हो।
२२८. रागरहित होनेसे “विराग” हो।
२२९. विषय रहित होने से “विरत” हो।
२३०. स्व मे रममाण रहनेसे अर्थात पर का कोई संग नही रहनेसे “असंग” हो।
२३१. एकाकि होनेसे अथवा स्वभाव मे रहनेसे मात्र स्वयम् का साथ होनेसे “विविक्त” हो।
२३२. किसीसे इर्ष्या, द्वेष, मत्सर ना होनेसे आप “वीत मत्सर” भि कहलाते है।
विनेय जनता बंधु र्विलीना शेष कल्मष:। वियोगो योगविद् विद्वान् विधाता सुविधि सुधी:॥४॥
२३३. जो आपके लिये विनय धारण करते है, आपकि भक्ति करते है, प्रार्थना करते है, ऐसे जनो के बन्धू अर्थात उनके हितैषी होनेसे आप “विनेयजनताबंधु“ हो. २३४. समस्त कर्मरुपी कालिमासे रहीत होनेसे “विलीनाशेषकल्मष“ हो ।
२३५. मन, वच, कायसे किसी भि परपदार्थ के कोई भि योग ना होनेसे “वियोग“ हो।
२३६. योग के ज्ञाता होनेसे “योगवित्“ हो।
२३७. सम्पुर्ण ज्ञान के धारी होनेसे “विद्वान“ हो।
२३८. धर्म रूपी सृष्टीसे कर्ता होनेसे अथवा सबके गुरु होनेसे “विधाता“ हो।
२३९. आपकि समस्त क्रिया अत्यंत प्रशंसनीय होनेसे “सुविधी“ हो।
२४०. अतिशय बुध्दिमान होनेसे “सुधी“ कहलाते है।
क्षान्ति भाक़् पृथ्वीमूर्ति: शान्ति भाक् सलिलात्मक:। वायुमूर्ति रसंगात्मा वन्हि मूर्ति धर्मधृक् ॥५॥
२४१. उत्तम क्षमा को धारण करनेवाले होनेसे “क्षान्तिभाक्“ हो।
२४२. पृथ्वी के समान सहनशीलता होनेसे “पृथ्वीमूर्ति“ हो।
२४३. शांत होनेसे “शान्तिभाक्“ हो।
२४४. जलके समान निर्मल होनेसे अथवा जल के समान सबका कर्ममल धोनेवाले होनेसे “सलीलात्मक“ हो।
२४५. वायु समस्त जीवोंको स्पर्श करते हुए किसीसे संबंध नही बनाता ऐसे होनेसे “वायुमूर्ति“ हो।
२४६. किसीभि परिग्रह रहित होनेसे (आप बहिरंग तथा अंतरंग लक्ष्मीके स्वामी होते हुए भि) “असंगात्मा“ हो।
२४७. आपने अग्निके समान कर्मरुपी इंधन को जलानेसे अथवा अग्नि के समान हि उर्ध्वगमन (सिध्दशीला) का स्वभाव होनेसे “वन्हिमूर्ति“ हो।
२४८. अधर्म का नाश करनेसे ” अधर्मधृक्“ भि कहे जाते है।
सुयज्वा यजमानात्मा सुत्वा सूत्राम पूजित:। ऋत्विग्यज्ञ पति र्यज्ञो यज्ञांगम मृतं हवि:॥६॥
२४९. जैसे यज्ञ मे सामग्री का होम किया जाता है, वैसेहि आपने कर्मरुपी सामग्री को जलाया है, इसलिये आपको “सुयज्वा“ कहा जाता है।
२५०. स्वयं के आत्मा कि हि अथवा स्वभाव भाव कि आराधना करनेसे अथवा भावपूजा के कर्ता होनेसे “यजमानात्मा“ हो।
२५१. सदैव परमानंद समुद्रमे अभिषिक्त रहनेसे “सुत्वा“ हो।
२५२. इन्द्र के द्वारा पूजित होनेसे “सूत्रामपूजित“ हो।
२५३. ध्यानरुप अग्नीमे कर्म को भस्म करनेसे अथवा ज्ञानरुपी यज्ञ के कर्ता होनेसे “ऋत्विक“ हो।
२५४. ज्ञान यज्ञ के अधिकारी जनोमें प्रमुख होनेसे “यज्ञपति“ हो।
२५५. जैसे यज्ञ किसी पूज्य के लिये किया जाता है, वैसेहि आप सबके पूज्य है, इसलिये “यज्य“ हो।
२५६. यज्ञके लिये मुख्य कारण होनेसे अथवा सबके पूज्य होनेसे “यज्ञांग“ हो।
२५७. मरण रहित होनसे अथवा संसार तृष्णा को शांत करनेवाला उपदेश देनेवाले होनेसे “अमृत्“ हो।
२५८. स्वात्मालीन रहनेसे “हवि“ भि कहलाते है।
व्योम मुर्ति मूर्तात्मा निर्लेपो निर्मलोचल:। सोममूर्ति: सुसौम्यात्मा सूर्यमूर्ति र्महाप्रभ:॥७॥
२५९. आकाश के समान निर्मल होनेसे तथा सर्वत्र व्याप्त होनेसे “व्योममूर्ति“ हो।
२६०. रूप, रस, गंध व स्पर्श रहित होनेसे “अमूर्तात्मा“ हो।
२६१. निष्कर्म अथवा कर्मरुपी लेपरहित होनेसे “निर्लेप“ हो।
२६२. रागादि अथवा मलमूत्रादि दोषरहित होनेसे “निर्मल“ हो।
२६३. सर्वदा स्थिर अर्थात सतत होनेसे “अचल“ हो।
२६४. चंद्रमा के समान शीतलता प्रदान करने वाले होनेसे “सोममूर्ति“ हो।
२६५. अत्यंत सौम्य होनेसे “सुसौम्यात्मा“ हो।
२६६. सूर्य के समान आभा तथा कांतिमान होनेसे “सूर्यमूर्ति“ हो।
२६७. अत्यंत तेजोमय होनेसे अथवा प्रभावशाली होनेसे “महाप्रभ“ कहलाते है।
मन्त्रविन् मन्त्रकृन् मन्त्री मन्त्रमूर्ति रनन्तग:। स्वतन्त्र स्तन्त्र कृत्स्वन्त: कृतान्तान्त: कृतान्त कृत्॥८॥
२६८. सकल मंत्रोके ज्ञाता होनेसे “मन्त्रवित्“ हो।
२६९. आपने जो चार अनुयोग बताये है, वे मन्त्र के समान जप करने योग्य होनेसे आप को “मन्त्रकृत्“ हो।
२७०. स्वात्मा कि मंत्रणा करनेसे अथवा प्रमुख रहनेसे अथवा लोक के रक्षक होनेसे आप “मंत्री“ हो।
२७१. स्वयंभि आप जप अथवा चिंतन करने योग्य होनेसे “मन्त्रमूर्ति“ हो।
२७२. अनंतज्ञान धारी होनेसे “अनंतग“ हो।
२७३. आपका सिध्दांत आत्मा हि होनेसे “स्वतंत्र“ हो।
२७४. आगम अथवा धर्मतंत्र के प्रणेता होनेसे “तन्त्रकृत्“ हो।
२७५. शुध्द अंतकरण होनेसे “स्वंत“ हो।
२७६. यम का अर्थात मरण का नाश करनेसे “कृतान्तान्त“ हो।
२७७. पूण्यवृध्दी का कारण होनेसे अथवा धर्म का कारण होनेसे “कृतान्तकृत“ भि कहे जाते है।
कृती कृतार्थ: सत्कृत्य: कृतकृत्य: कृतक्रतु:। नित्यो मृत्युञ्जयो मृत्युर मृतात्माऽ मृतोद्भव: ॥९॥
२७८. मोक्षमार्गमे पारंगत अथवा प्रवीण होनेसे अथवा हरिहरादिसे पूजाकृत होनेसे “कृती“ हो।
२७९. मोक्षरुप अंतीम साध्य पानेवाले होनेसे “कृतार्थ“ हो।
२८०. जो पुरुषार्थ आपने मोक्षमार्ग के लिये किया वह अत्यंत प्रशंसनीय होनेसे “सत्कृत्य“ हो।
२८१. आपने मोक्षपाने तक के सब कार्य कर लिये है, अर्थात आपके करनेयोग्य अब् कोई कार्य नही रहनेसे आप संतुष्ट है, “कृतक्रुत्य“ है।
२८२. ध्यानसे आपने कर्म, नोकर्म को भस्म किया है, ज्ञानरुपी यज्ञभि सम्पुर्ण किया है तथा आपकि तप्श्चचर्या का यज्ञ तक सफल समापन होनेसे “कृतक्रतु“ हो।
२८३. आप सदैव है, आप अभि ध्रौव्य को या व्यय को प्राप्त नही होंगे, इससे आपको “नित्य“ भि कहा जाता है।
२८४. मृत्यु को परास्त करनेसे “मृत्युंजय“ हो।
२८५. आप कि आत्मा अमर है तथा आप अभि मृत्यु को कभि प्राप्त नही होंगे इसलिये “अमृत्यु“ है।
२८६. अविनाशी आत्मा मात्र रहनेसे आप “अमृतात्मा“ हो।
२८७. आपके अमृतमय मोक्षमार्ग के उपदेश से समस्त जीवोंको अमर होनेका मार्ग ज्ञात होनेसे “अमृतोद्भव“ है।
ब्रह्मनिष्ठ परंब्रह्म ब्रह्मात्मा ब्रह्मसंभव:। महाब्रह्म पतिर्ब्रह्मेड् महाब्रह्म पदेश्वर॥१०॥
२८८. आत्मब्रह्म मे लीन रहने से “ब्रह्मनिष्ठ“ हो।
२८९. सर्व ज्ञान मे उत्कृष्ट ज्ञान –केवलज्ञान आत्मा मे धारण करने से “परंब्रह्म“ हो।
२९०. आपके आत्मा का केवलज्ञान स्वरुप होनेसे “ब्रह्मात्मा“ हो।
२९१. आपसे केवल् ज्ञान कि उत्पत्ति होती है, तथा शुध्दात्मा कि प्राप्ति होति है, इसलिये “ब्रह्मसंभव“ हो।
२९२. चार ज्ञानके धारी गणधरादिके स्वामी, पूज्य होनेसे “महाब्रह्मपति“ हो।
२९३. समस्त केवली मे प्रधान होनेसे “ब्रह्मेट्“ हो।
२९४. मोक्षपद के अर्थात महाब्रह्मपद के अधिकारी होनेसे आपको “महाब्रह्मपदेश्वर“ कहा जाता है।
सुप्रसन्न: प्रसनात्मा ज्ञानधर्म दमप्रभु। प्रशमात्मा प्रशान्तात्मा पुराण पुरुषोत्तम: ॥११॥
२९५. स्वात्मानुभुतिके आनंदमे लीन रहनेसे तथा सदैव प्रसन्न रहकर भक्तोंको देनेवाले होनेसे “सुप्रसन्न“ हो।
२९६. आपके आत्मा मे कोई मल नही, अर्थात वह भि प्रसन्न है इसलिये “प्रसन्नात्मा“ हो।
२९७. केवलज्ञान, दशविध धर्म तथा इंद्रियनिग्रह के स्वामी होनेसे “ज्ञानधर्मदमप्रभु“ हो।
२९८. क्रोधादि कषायोको शमन कि हुइ आत्मा होनेसे “प्रशमात्मा“ हो।
२९९. आपका दर्शन भि परम शान्ति प्रदान करता है, आपकि आत्मा भि परमशान्त है, तथा आपक उपदेश भि परमशान्ति देनेवाला पद का मार्ग दिखाता है, इसलिये हे विभो आपको “प्रशान्तात्मा“ कहा है।
३००. अनादि काल से जितने भि पुरुष हुए है, उन सबमे आप उत्कृष्ट रहने से आप “पुराणपुरुषोत्तम“ हो।
इति स्थविष्ठादिशतम् ॥३॥
महाऽशोक ध्वजोऽशोक: क: स्रष्टा पद्मविष्टर:। पद्मेश पद्मसम्भूति: पद्मनाभि रनुत्तर:॥१॥
३०१. आपके अष्ट प्रातिहार्योमे महा अशोकवृक्ष है, इसलिए आपको “महाऽशोकध्वजा” कहा जाता है।
३०२. आपने शोक को नष्ट किया है इसलिये “अशोक“ है।
३०३. सबसे सुख देने वाले या सबमे ज्येष्ठ होनेसे “क“ हो।
३०४. मोक्षमार्ग कि शुरुवात करने से “स्रष्टा“ हो।
३०५. आप कमलासन पर विराजमान है, जो कि देवकृत है, इसलिये ” पद्मविष्टर“ है।
३०६. अंतरंग लक्ष्मी (अनंत सुख, वीर्य, ज्ञान, दर्शन) तथा बहिरंग लक्ष्मी (समवशरण, प्रातिहार्य, अतिशय) होनसे “पद्मेश“ हो।
३०७. समवशरण के उपरांत जब भि आप विहार करते हो, तब आपके चरणोके निचे देवकृत अतिशयसे कमलोंकि रचना होती है, यद्यपि आप उन्हे स्पर्श करे बगैरहि अधर मे चलते है, तो उस कमल रचना से “पद्मसंभूति” कहे जाते हो।
३०८. कमल के समान नेत्रसुखद नाभि होनेसे “पद्मनाभ” हो।
३०९. आपके समान कोई और नही ना होगा इस् कारण से आपको “अनुत्तर” नामसे भि सम्बोधा जाता है।
पद्मयोनि र्जगद्यो निरित्य: स्तुत्य: स्तुतिश्वर:। स्तवनार्हो हृषीकेशो जितजेय कृतक्रिय:॥२॥
३१०. आपके अंतरंगसे और उस निमित्तसे बहिरंग लक्ष्मी कि उत्पत्तिअ होती है, इसलिये आप“पद्मयोनि” हो अर्थात लक्ष्मीको जन्म देनेवाला कहा जाता है।
३११. जगत् कि उत्पत्ती के भि कारण आप है, क्युंकि आपने हि जगत के प्राणीयोंको जिने कि राह दि है, इसलिये “जगतयोनि” हो।
३१२. आपके होने का ज्ञान होनेसे अथवा आप जो जानना चाहे उसे ज्ञान होनेसे आपको “इत्य” कहा जाता है (यहाँ यह बताये कि येशु को भि इत्य नामसे जाना जाता है, जो है = इत्य)।
३१३. सबके द्वारा प्रशंसनीय होनेसे स्तुतियोग्य होनेसे “स्तुत्य“ हो।
३१४. समस्त स्तुतियोंमे आपकि स्तुति श्रेष्ठ होनेसे “स्तुतिश्वर” हो।
३१५. ऐसि उत्कृष्ट स्तुतियोंके पात्र होनेसे या ऐसी स्तुति के लिये श्रेष्ठ होनेसे ” स्तवनार्ह” हो।
३१६. आपने इन्द्रियोपर विजय पाकर उन्हे दास बनाया, अपने वश मे किया है, इसलिये आप हृषिक + इश = “हृषीकेश” कहलाते हैऽ ।
३१७. जिन पर विजय पानी चाहिये अर्थात जो जेय है, उन्हे जितने के कारण आप ” जितजेय” है।
३१८. शुध्दात्मा कि प्राप्ति के पुरुषार्थ के लिये आपने सारे कृत्य पुर्ण किये इस लिये आप “कृतक्रिय“ है।
गणाधिपो गणज्येष्ठो गण्य: पुण्यो गणाग्रणी:। गुणाकारो गुणाम्बोधि र्गुणज्ञो गुणनायक:॥३॥
३१९. बारह प्रकार कि सभाए आपके स्वामित्व मे समवशरण होती है, इसलिए “गणाधिप” हो।
३२०. समस्त चतुर्विध संघ मे मुख्य होनेसे “गणज्येष्ठ“ हो।
३२१. आपके केवल ज्ञानोपदेश मे जन ऐसे आनंदित होते है, जैसे दिव्य उपवन मे विहर रहे हो, इसलिये आपको “गण्य” कहते है।
३२२. आप स्वयं हि पुण्यरुप है, इसलिये “पुण्य” हो।
३२३. सब जन, गण के अग्रणी होनेसे “गणाग्रणी“ हो।
३२४. गुणोके खान, भंडार होनेसे तथा गुणोकि वृध्दि करने वाला उपदेश देनेसे “गुणाकर“ हो।
३२५. जितने समुद्र मे रत्न है, उतने आपके गुण है, अत:”गुणाम्बोधि“ हो।
३२६. समस्त गुण, उनकि उत्पत्ती, उनके धारण करनेसे आनेवाली विशुध्दीको जाननेसे आप “गुणज्ञ“ हो।
३२७. इन सब गुणोकें नेता होनेसे आपको “गुणनायक” भि कहा जाता है।
गुणादरी गुणोच्छेदी निर्गुण पुण्यगीर्गुण: । शरण्य: पुण्यवाक्पूतो वरेण्य: पुण्यनायक:॥४॥
३२८. आप मात्र गुणोके धारक हि नही, गुणोंका सम्मान भि करते है, इसलिए ” गुणादरी” हो।
३२९. अवगुणोका नाश करनेसे अथवा इंद्रिय इच्छाओंका दमन करनेसे “गुणोच्छेदी” हो।
३३०. विशेष आकार रहित होनेसे या विभाव नाश करनेसे अथवा गुण होनेवाले किसी भि वस्तु का आपका संबध का अभाव होनेसे आपको “निर्गुण” कहा जाता है ।
३३१. आपकि वाणी को सुनना पुण्यार्जन करानेवाला है, इसलिये आप “पुण्यगी“ हो।
३३२. आप स्वयं हि शुध्द गुणस्वरुप है,”गुण“ है ।
३३३. जिसे शरण जाया जाये ऐसे एकमात्र होनेसे “शरण्यभूत“ हो।
३३४. जैसा आपका उपदेश पुण्यरुप है, वैसेहि आपकि वचन मात्र सुननेसे पुण्य प्राप्त होता है, आपके वचन सुनने मात्र से पुण्य प्राप्त होता है, इसलिये “पुण्यवाक्“ हो।
३३५. पुजित, पुज्य, पुण्यस्वरूप होनेसे “पूत्“ हो।
३३६. आप सर्वोपरी होनेसे, सबमें श्रेष्ठ होनेसे “वरेण्य“ हो।
३३७. पुण्य के स्वामी होनेसे आपको “पुण्यनायक” कहा जाता है।
अगण्य: पुण्यधीर्गुण्य: पुण्यकृत्पुण्यशासन:। धर्मारामो गुणग्राम: पुण्यापुण्य निरोधक:॥५॥
३३८. आप संसार के जनोमें अब गिने नही जायेंगे अर्थात आप “अगण्य” है, अथवा आपके गुण अनंत होनेसे आप “अगण्य” है. ।
३३९. आपका ज्ञान यथार्थ होनेसे साथ पूण्यकारक है, इसलिये “पुण्यधी” है.।
३४०. जिनके लिये समवशरण कि दिव्य रचना होती है, उनमे आप “गण्य“ है,।
३४१. पुण्य के कर्ता है इसलिये “पुण्यकृत्“ है.।
३४२. आपने उपदेशित धर्मशासन पुण्यरुप है, इसलिये “पुण्यशासन” है. ।
३४३. धर्म, सत्य, गुण तथा ज्ञान के समुहके धारक होनेसे “धर्माराम “ है.।
३४४. आप “ गुणग्राम “ है. ।
३४५. मोक्षके लिये आपने पाप और पुण्य दोनो का निरोध किया है, क्योंकि मात्र पाप का नाश मोक्ष प्राप्तीके लिये पर्याप्त नही है इसलिये “पुण्यापुण्यनिरोधक” भि कहे जाते है।
पापापेतो विपापात्मा विपाप्मा वीतकल्मष: ।निर्द्वंद्वो निर्मद” शान्तो निर्मोहो निरुपद्रव:॥६॥
हिंसादि समस्तपापोसे रहित होनेसे…..
३४६. आप “पापापेत” है ।
३४७. “विपापात्मा” है।
३४८. “विपात्मा” है ।
३४९. कर्ममल रहित विशुध्द होनेसे आप “वीतकल्मष” है ।
३५०. स्व और् पर का द्वंद्व समाप्त करनेसे “निर्द्वंद्व” है ।
३५१. अहंकार, मान, मद रहित होनेसे “निर्मद“ है ।
३५२. मृदू होनेसे आपके भाव शान्त होनेसे “शान्त” है।
३५३. मोह, इच्छा आदि रहित होनेसे “निर्मोह“ है।
३५४. आपसे किसी को भि उपद्रव नही होता, आपके चलनेसे (अधर), बैठनेसे (अधर) वचनसे (ओष्ठ ना हिलनेसे) किसी को भि कोई भि उपद्रव अथवा आक्रमण नही होता इसलिये “निरुपद्रव” कहा जाता है।
निर्निमेषो निराहारो निष्क्रियो निरुपप्लव:। निष्कलंको निरस्तैना निर्धूतांगो निरास्रव:॥७॥
३५५. आपके परिषह जयी होनेसे आपके पलक नही झपकते अर्थात आपकि दॄष्टी अपलक इसलिये आपको “निर्निमेष” कहते है।
३५६. आपको द्रव्याहार कि जरुरत नही है, आपको दिव्य वर्गणासे आहार प्राप्त होता है, अर्थात आप “निराहार” हो; ।
३५७. आपने सब क्रियाए बंद करी है, अथवा आपके कोई भि क्रियासे चलन वलन से कोई हिंसा नही होती, इसलिये आप “निष्क्रिय“ है; ।
३५८. आपने सारे कर्मरुपी संकटोका नाश किया अथवा आप संकटरहित है, अथवा आपके सानिध्य मे संकट नही आ सकता इसलिये आप “निरुपप्लव “ हो; ।
३५९. सर्व कर्म मैल हट जानेसे, अथवा आपके आत्मा मे कलुषितता का अभाव होने से ” निष्कलंक” हो।
३६०. पापोंको, पुण्य को, कर्म को अर्थात मोक्ष के मार्ग मे अटकाव करनेवाले सबको आपने परास्त किया है, इसलिये आप ” निरस्तैना” हो; ।
३६१. अपने स्वयं से चिपके हुए सब मैल को आपने धो दिया है, अपनी आत्मा को परमशुक्ल बनाया है, इसलिये आपको “निर्धूतांग” कहा है।
३६२. आपके कर्म आस्रव बंद होनेसे, रुकनेसे, फिर कभी ना आ पानेसे आपको “निरास्रव” भि कहा जाता है।
विशालो विपुल ज्योतिरतिलोऽ चिन्त्यवैभव:। सुसंवृत: सुगुप्तात्मा सुभूत् सुनय तत्त्ववित्॥८॥
३६३. आप बृहद् है, महान है इसलिये “विशाल” है; ।
३६४. केवलज्ञान रुप अपार, अखण्ड ज्योतिके धारक “विपुलज्योति” है।
३६५. आप अनुपम है, आपकि तुलना किसीसे भि नही हो सकती अथवा किसीभि वस्तु के साथ आपको तोला नही जा सकता इस लिये ” अतुल” है ।
३६६. आपका केवलज्ञानरुपी अंतरंग वैभव कल्पना से परे है, अथवा आपके विभुति का कोई भि यथार्थ समुचित चिंतवन नही कर सकता इतनी आपकि विभुति अगम्य है, आप “अचिन्त्यवैभव“ हैऽ ।
३६७. आपके सर्व ओर ज्ञानी गणधर विराजमान रहते है, अर्थात आप सुजनोसे घिरे हुए रहते है, अथवा सुजन सदैव आपके आसपास आके रुके रहते है, इसलिये “सुसंवृत्“ हो।
३६८. अभि आपकि आत्मा किसी भि कर्मास्रव को दृगोचर नही होती, उनके लिये वह गुप्त हो गयी है, इसलिये “सुगुप्तात्मा” हो।
३६९. आप उत्तम ज्ञाता होनेसे अथवा आप का होना उत्तम होनेसे अथवा आप सर्वोत्तम होनेसे आप “सुभूत” है;।
३७०. सप्तनयोंकि यथार्थ मे जानने से, अथवा सब वस्तु तथा घटनाओंको सप्तनयोंसे समझानेसे आपको “सुनयतत्त्ववित्” भि कहा जाता है।
एकविद्यो महाविद्यो मुनि: परिवृढ: पति:। धीशो विद्यानिधि: साक्षी विनेता विहतान्तक:॥९॥
३७१. एक ज्ञान के धारी “एकविद्य“ हो।
३७२. अनेक विद्याओंके ज्ञान तथा पारंगत होनेसे “महाविद्य“ हो।
३७३. प्रत्यक्ष ज्ञान के धारी होनेसे “मुनि“ हो।
३७४. तपस्वीयोंके भि ज्ञान वृध्द होनेसे “परिवृढ“ हो।
३७५. जगतरक्षक होनेसे “पति“ हो।
३७६. बुध्दी आपकि दासी है इसलिये “धीश“ हो।
३७७. सागर मे जितना जल है, उससे भि ज्यादा आपका ज्ञान होनेसे अथवा ज्ञान के सागर होनेसे “विद्यानिधी” है ।
३७८. त्रैलोक्य मे घटने वाली घटना आपको ऐसे झलकती है, जैसे आप वहा हो, इस तरह से हर घटनाके आप “साक्षी” हो ।
३७९. मात्र मोक्षमार्ग कथन करनेमे हि दृढ रहनेसे “विनेता” हो।
३८०. मृत्यु का नाश करनेसे आपको “विहतांतक” भि कहा जाता है।
पिता पितामह पाता पवित्र: पावनो गति:। त्राता भिषग्वरो वर्यो वरद: परम: पुमान्॥ १०॥
३८१. एक “पिता” के समान आप भव्योंको नरकादि गतियोंसे बचने का उपदेश देते है अथवा बचाते है; ।
३८२. सबके गुरु होनेसे सबमे ज्येष्ठ होनेसे आप “पितामह“ है;।
३८३. सबको रास्ता दिखानेसे अथवा सब हि जीव आगे आपके हि मार्गपर चलने से जैसे आपके वंशज है, इसलिये आप “पाता “ हो; ।
३८४. आप स्वयं पवित्र हो तथा समस्त जनोंके लिये भि “पवित्र“ हो; ।
३८५. दुरितोंको पवित्र करनेसे आप “पावन“ हो; ।
३८६. आप ज्ञानस्वरुप अर्थात “गति“ हो, ।
३८७. भवतारक होनेसे आप “त्राता “ हो; ।
३८८. जैसे उत्तम वैद्य का नाम लेते हि अनेक रोग दूर हो जाते है, तत्सम आपका नाममात्र भि जन्म, जरा, मरणरुपी रोगोंसे मुक्ति दिलानेवाला है इसलिये आप उत्तम वैद्य अर्थात “भिषग्वर” कहलाते होऽ ।
३८९. आप सबमे श्रेष्ठ होनेसे “वर्य” हो।
३९०. मोक्षका वरदान देनेसे “वरद” हो तथा आप समस्त जनोंको वरदान से प्राप्त हुए है, इसलिये भि “वरद” कहलाते है ।
३९१. इच्छा पुर्ण करने वाले आप “परम“ हो ।
३९२. आप स्वयंकि आत्मा को तथा भक्तोंको पवित्र करनेवाले होनेसे “पुमान्” हो ।
कवि: पुराणपुरुषो वर्षीयान्वृषभ: पुरु:। प्रतिष्ठाप्रसवो हेतुर्भुवनैकपितामह:॥११॥
३९३. अनेक दृष्टांतोसे, उपमाओसे धर्माधर्म का निरुपण किया करते है, इसलिये आप “कवि“ हो ।
३९४. आप अनादिकालीन हो तथा सर्व पुराणोंमे आपकि चर्चा पायी जाती है, इसलिए “पुराणपुरुष” हो।
३९५. आप इतने वृध्द हो, कि आपका जन्म किसीने देखा नही है, इसलिये “वर्षीयान्” हो।
३९६. अनंतवीर्य होनेसे “वृषभ“ हो।
३९७. आप सबसे अग्रगामी है, महाजनोंमें श्रेष्ठ है, इसलिये “पुरु” है।
३९८. आपके भक्ति, सेवा करनेवालोंको अनायास हि प्रतिष्ठा प्राप्ति हो जाती है, अथवा स्थैर्य आपसे उत्पन्न हुआ है इसलिये “प्रतिष्ठाप्रसव” हो।
३९९. मोक्षके कारण आप “हेतु“ हो ।
४००. तिनों लोकोंमें मात्र एक आपहि ऐसे हो जो सबका कल्याण करनेवाला, मोक्षमार्ग बतानेवाला हितोपदेश देते है, इसलिये हे विभो आपको “भुवनैकपितामह“ भि कहा जाता है।
इति महाऽशोकाऽदिध्वजम् !!
श्रीवृक्षलक्षण श्लक्ष्णो लक्षण्य: शुभलक्षण:। निरक्ष: पुण्डरीकाक्ष: पुष्कल: पुष्करेक्षण:॥१॥
४०१. आपके अष्टप्राअतिहार्योंमेसे एक अशोक अर्थात श्रीवृक्ष है, इसलिये आप को “श्रीवृक्षलक्षण“ कहते है ।
४०२. आपका शरीर अत्यंत मृदू होनेसे,लक्ष्मी के द्वारा आलिंगित होनेसे अथवा सुक्ष्म होनेसे “श्लक्ष्ण“ हो ।
४०३. लक्षणसहीत होनेसे “लक्षण्य” हो।
४०४. १००८ शुभलक्षण होनेसे “शुभलक्षण“ हो।
४०५. इंद्रीयरहीत होनेसे “निरक्ष“ हो।
४०६. कमलनयन होनेसे “पुण्डरीकाक्ष“ हो।
४०७. सम्पुर्ण होनेसे “पुष्कल“ हो।
४०८. कमलदल के समान दीर्घ नेत्र होनेसे “पुष्करेक्षण” हो।
सिध्दिद: सिध्दसंकल्प: सिध्दात्मा सिध्दसाधन:। बुध्दबोध्यो महाबोधि र्वर्धमानो महर्द्धिक:॥२॥
४०९. मोक्षरुप सिध्दिदायक होनेसे “सिध्दिद“ हो।
४१०. जो भि जनोंके संकल्प ईच्छा है, उन्हेसफल करनेवाले होनेसे “सिध्दसंकल्प“ हो।
४११. पूर्ण स्वानंद रुप् आत्मलीन होनेसे “सिध्दात्मा“ हो।
४१२. मोक्षमार्ग रुप साधन होनेसे “सिध्दसाधन” हो।
४१३. बुध्दिमान अथवा विशेष ज्ञानीयोंद्वारा जाननेयोग्य होनेसे “बुध्यबोध्य” हो।
४१४. केवलज्ञानी होनेसे “महाबोधी“ हो।
४१५. आपके सर्वत्र पुज्य होनेसे तथा आपकि पुजनीयता सतत वृध्दीमान होनेसे “वर्ध्दमान“ हो।
४१६. आपकि विभुती विशेष होनेसे, ऋध्दियाँ अपने आप आपको अवगत होनेसे “महर्ध्दिक“ कहे जाते हो ।
वेदांगो वेदविद् वेद्यो जातरूपो विदांवर:। वेदवेद्य: स्वसंवेद्यो विवेदो वदतांवर:॥३॥
४१७. चार अनुयोगरुपी वेद के कारण आप “वेदांग“ है।
४१८. आप आत्मा का यथार्थ स्वरुप् जानते है, इसलिये “वेदविद्“ है।
४१९. आप आगम अर्थात अनुयोगोंद्वारा जानने के योग्य होनेसे “वेद्य” है।
४२०. जन्म लेते समय जो दिगंबर अवस्था तथा विकार रहित अवस्था होती है, वैसे होनेसे “जातरुप” है।
४२१. आप सब विद्वानोमे श्रेष्ठ है अर्थात “विदांवर“ है ।
४२२. केवलज्ञान के द्वारा भि आपको जाना जा सकता है, अर्थात आप “वेदवेद्य“ हो ।
४२३. आत्मानुभव से भि आपको जाना जा सकता है, इसलिये ” स्वसंवेद्य“ हो।
४२४. जो अनागम है उसे भि आप जानते हो इसलिए “विवेद“ हो।
४२५. वक्ताओंमे, उपदेशकर्ताओंमे आप सर्वश्रेष्ठ है इसलिये आप “वदतांवर” है।
अनादि निधनोऽ व्यक्तो व्यक्तवाग़ व्यक्तशासन:। युगादिकृद् युगाधारो युगादि र्जगदादिज:॥४॥
४२६. आपके जन्म तथा अन्तरहित होनेसे “अनादिनिधन“ हो।
४२७. आपका वर्णन किसी के लिये संभव नही इसलिये “अव्यक्त“ हो।
४२८. आपका उपदेश सब प्राणियोंको समझने वाला है इसलिये ” व्यक्तवाक्“ हो।
४२९. आपने कथित किया हुआ शासन हि एक मात्र सम्यक शासन होनेसे अथवा आपके व्यक्तव्य का कोई विरोध नही, सब संसार मे वह प्रसिध्द है इसलिये भि “व्यक्तशासन” हो।
४३०. कर्म युग के आरंभकर्ता होनेसे “युगादिकृत“ हो।
४३१. युग के पालक, अथवा त्राता होनेसे “युगाधार“ हो।
४३२. आप युग के प्रारंभसे है, अर्थात “युगादि“ है।
४३३. आप कर्मभुमि के आरंभ मे उत्पन्न हुए इसलिये आपको “जगदादिज“ भि कहा जाता है।
अतीन्द्रोऽ तिन्द्रियो धीन्द्रो महेन्द्रोऽ तिन्द्रियार्थ दृक्। अनिन्द्रियो अहमिन्द्रार्च्यो महेन्द्र महितो महान्॥५॥
४३४. आप इन्द्र नरेन्द्रोके भि विशेष होनेसे “अतीन्द्र“ हो ।
४३५. आपका यथार्थ स्वरुप अर्थात विशुध्दात्मा इन्द्रियोंको गोचर ना होनेसे “अतिन्द्रिय” हो।
४३६. बुध्दिके नाथ होनेसे अथवा आप शुक्लध्यान के द्वारा परमात्मस्वरुप प्राप्त करनेवाले होनेसे “धीन्द्र” हो ।
४३७. इन्द्रोंमे महान होनेसे अथवा पूजाके अधिपति होनेसे “महेन्द्र” हो।
४३८. जो पदार्थ इन्द्रिय और मन के अगोचर है, उन्हे भि आप जानते हो इसलिये ” अतिन्द्रियार्थदृक्“ हो।
४३९. इन्द्रियरहित होनेसे “अनिन्द्रिय“ हो।
४४०. अहमिन्द्रोद्वारा पुजनिय, पुजित और पूज्य होनेसे “अहमिन्द्रार्च्य” हो।
४४१. इन्द्रभि आपकि महिमा गाते है, आप उनके भि पुज्य है, इसलिये “महेन्द्रमहित” हो।
४४२. समस्त जिवोंके बडे और पूज्य होनेसे आप ” महान्” कहे जाते है।
उद्भव: कारणं कर्ता पारगो भक्तारक:। अगाह्यो गहनं गुह्यं परार्घ्य: परमेश्वर:॥६॥
४४३. यह आपका अंतीम भव होनेसे आप “उद्भव“ है।
४४४. मोक्ष के, मोक्षमार्गके आप “कारण” है ।
४४५. शुध्द भाव आपसे हि उपजते है इसलिये “कर्ता“ है।
४४६. संसारसमुद्र के पारगामी होनेसे “पारग“ हो।
४४७. समस्त जीवोंको पार लगानेवाले होनेसे “भवतारक“ हो।
४४८. इन्द्रियोंद्वारा ग्रहण नही किये जा सकते इसलिये “अग्राह्य” हो।
४४९. आप स्वरुप अत्यंत गुढ है, “गहन” है ।
४५०. आप रहस्यमय होनेसे अर्थात गुप्तरुप होनेसे अर्थात आपका यथार्थ स्वरुप जो आत्मा है, वह अगोचर होनेसे “गुह्य” हो।
४५१. औरोंके द्वारा अर्घ्य देने के योग्य होनेसे अथवा उत्कृष्ट विभूति के धारक होनेसे “परार्घ्य” हो।
४५२. सबके स्वामी होनेसे अथवा परमपद मोक्ष के स्वामी होनेसे आप “परमेश्वर” भि कहे जाते है।
अनन्तर्द्धि मेयर्द्धि रचिन्त्यर्द्धि समग्रधी:। प्राग्रय: प्राग्रहरोऽभ्यग्र: प्रत्यग्रयोऽग्रिमोग्रज।
४५३. आप अनंत ऋध्दियोंके धारी होनेसे “अनंतर्द्धि” है।
४५४. अनगिनत अमित ऐश्वर्य को धारण करनेसे “अमेयर्द्धि“ हो।
४५५. चिंतन से परे आपका ऐश्वर्य, ऋध्दी, बल, ज्ञान होनेसे “अचिन्त्यर्द्धि“ हो।
४५६. जगत के समस्त पदार्थोंकि समस्त पर्यायोंका सम्पुर्ण ज्ञान होनेसे “समग्रधी” हो।
४५७. सबके मुख्य होनेसे “प्राग्रय:” हो।
४५८. सबमे श्रेष्ठ होनेसे “प्राग्रहर” हो।
४५९. श्रेष्ठमे श्रेष्ठ होनेसे “अभ्यग्र“ हो।
४६०. लोक के अग्र मे हि आपकि रुचि होनेसे “प्रत्यग्र” हो।
४६१. सबके नेता, मोक्षमार्ग कि दिशामे ले जाने वाले अग्रणी होनेसे “अग्र्य” हो।
४६२. सबके आगे होनेसे “अग्रिम” हो।
४६३. सबके ज्येष्ठ होनेसे “अग्रज” कहे जाते है।
महातपा महातेजा महोदर्को महोदय:। महायशा महाधामा महासत्वो महाधृति:॥८॥
४६४. कठिन तप करनेवाले आप “महातपा” है।
४६५. अत्यंत तेजस्वी होनेसे “महातेजा” है।
४६६. आपने तपसे केवलज्ञान कि प्राप्ति कि है, इसलिए ” महोदर्क” है।
४६७. समस्त जन को सुदैवी होनेका आनंद होनेका भाव आपसे होता है इसलिये “महोदय“ है।
४६८. आपका मोक्ष प्राप्त करनेका यश महान है इसलिये “महायशा“ है।
४६९. आप प्रकाशरुप है, आपका ज्ञान प्रकाशरुप है इसलिये ” महाधामा“ है।
४७०. आप महान विभुति है अथवा आपका होनाहि महान है इसलिये “महासत्व“ है।
४७१. आप वीर है, महान धैर्यधर है, इसलिये आपको “महाधृति” भि कहा जाता है।
महाधैर्यो महावीर्यो महासंपन् महाबल:। महाशक्ति र्महाज्योति र्महाभूति र्महाद्युति:॥९॥
४७२. व्यग्र अथवा चिंतित ना होनेवाले होनेसे “महाधैर्य“ हो।
४७३. अतिशय सामर्थ्यवान होनेसे “महावीर्य” हो।
४७४. महान संपदा के धनी होनेसे ( समवशरण) “महासंपत्” हो।
४७५. अतिशय बलवान होनेसे ” महाबल” हो।
४७६. अनंत बलशाली होनेसे “महाशक्ति“ हो।
४७७. असामान्य अद्वितीय कांतिमान होनेसे अथवा केवलज्ञान रुपी महान प्रकाशमान होनेसे “महाज्योति” हो।
४७८. पंचकल्याणक जैसी विभुति के कांत होनेसे “महाभूति“ हो।
४७९. अतिशय दिव्य शोभायमान होनेसे “महाद्युति” भि कहलाते है।
महामति र्महानिति र्महाक्षान्ति र्महोदय: । महाप्राज्ञो महाभागो महानन्दो महाकवि: ॥१०॥
४८०. अतिशय बुध्दिमान होनेसे “महामति“ हो।
४८१. न्याय मे पारंगत होनेसे अथवा न्यायवान होनेसे “महानिति“ हो।
४८२. अतिशय क्षमावान होनेसे “महाक्षान्ति” हो।
४८३. अत्यंत दयालु अथवा दयावान होनेसे “महादय” हो।
४८४. अत्यंत प्रवीण होनेसे “महाप्राज्ञ” हो।
४८५. आप स्वयंभी महाभाग्यशाली हो, तथा सबके के लिये भी अत्यंत भाग्यकारी हो इसलिये “महाभाग” हो।
४८६. स्वयं आत्मानंदमे लीन होनेसे तथा सबके लिये आनंदकारी होनेसे “महानन्द” हो।
४८७. शास्त्रो को रचयिता होनेसे आप “महाकवि” इत्यादि नामोंसे प्रसिध्द है।
महामहा महाकिर्ति र्महाकान्ति र्महावपु:। महादानो महाज्ञानो महायोगो महागुण:॥११॥
४८८. महान लोगोंमे महान होनेसे “महामहा” हो।
४८९. आपकि किर्ती सर्व जगतमे त्रिलोकमे व्याप्त होनेसे “महाकिर्ती” हो।
४९०. अत्यंत तेजोमय कांतिमान होनेसे “महाकांती” हो।
४९१. महान काय होनेसे “महावपु” हो।
४९२. आपने मोक्षमार्ग के उपदेश का, जगन मे कैसे जीवन जीनेका यह ज्ञान समस्त जीवोंका दिया है, इसलिये आप “महादान“ हो।
४९३. एक मात्र ज्ञान जिसके रहते ना कोई ज्ञान रहता है, ना कोई और ज्ञान कि आवश्यकता होती है, ऐसा केवलज्ञान धारण करनेसे “महाज्ञान” हो।
४९४. नियोग करनेसे “महायोग“ हो।
४९५. लोक के कल्याण कारी गुणधारक होनेसे आप को “महागुण” भि कहा जाता है।
महा महपति: प्राप्त महाकल्याण पञ्चक: । महाप्रभू र्महा प्रातिहार्योर्धीशो महेश्वर॥१२॥
४९६. पंचकल्याणरुपी महापुजाओंको प्राप्त कर आपने यह सिध्द किया कि आप “महामहपति“ हो ।
४९७. गर्भ से मोक्षतक के पाच कल्याणक होनेसे आप ” प्राप्तमहाकल्याणपंचक“ हो।
४९८. आप सबमे महान हो, सबके स्वामि हो, सबमे श्रेष्ठ हो, सबके कल्याणकारी हो इसलिये आप “महाप्रभु“ हो।
४९९. अशोक वृक्ष, सिंहासन, भामंडल, छत्र, चंवर, पुष्पवृष्टी, देवदुदुंभि, दिव्यध्वनी यह आठ प्रातिहार्य आपके समीप सदैव रहनेसे, आप उनके स्वामी रहनेसे ” महाप्रातिहार्याधीश“ हो।
५००. इंद्र तथा गणधर व जिनके अधीश्वर होनेसे आपको “महेश्वर” भि कहा जाता है।
इति श्रीवृक्षादिशतम् ।
महामुनि र्महामौनी महाध्यानी महादम: । महाक्षमो महाशीलो महायज्ञो महामख:॥१॥
५०१. मुनियोंमे महान होनेसे “महामुनि“ है।
५०२. ओष्ठद्वारा आप कुछ भि नही कहते इसलिये “महामौनी“ है।
५०३. परमशुक्ल ध्यान करनेसे “महाध्यानी” हो।
५०४. महान शत्रू अर्थात विषय कषाय को दमन करनेसे अथवा महान शक्ती व वीर्य के धारक होनेसे “महादम“ हो।
५०५. आप क्षमाशील है, महान क्षमांकर है इसलिये “महाक्षम“ हो।
५०६. आपका ब्रह्म सम्पुर्ण है, अत्युच्च है, इसलिये “महाशील“ है।
५०७. आपने स्वभाव कि अग्निमे विभाव परिणामोंकि आहुति देकर अथवा तपके द्वारा इंद्रिय विषय तथा कषाय कि आहुति देकर उत्तम यज्ञ का उदाहरण प्रस्तुत किया है इसलिये “महायज्ञ“ हो।
५०८. अतिशय पूज्य होनेसे अथवा सकल पूज्योमें महान होनेसे आप को ” महामख” भि कहा जाता है।
महाव्रत पतिर्मह्यो महाकान्ति धरोऽधिप:। महामैत्री महामेयो महोपायो महोमय: ॥२॥
५०९. पञ्चमहाव्रत के स्वामी अथवा पालक अथवा प्रणेता होनेसे “महाव्रतपति“ हो।
५१०. जगत्पुज्य होनेसे “मह्य“ हो।
५११. अत्यंत तेज धारण करनेसे अथवा केवलज्ञान रुपी प्रकाशज्योत के धारक होनेसे “महाकांतिधर“ है।
५१२. सबके पालक, रक्षक, स्वामी, अधिपति होनेसे “अधिप“ हो।
५१३. आपका सकल जीवोंसे मैत्र है, इसलिये “महामैत्रीमय“ हो।
५१४. आपकी सीमा कोई नहि नाप सकता इसलिये “अमेय“ हो।
५१५. मोक्ष के लिये उत्तम मार्ग बतानेसे “महोपाय” हो।
५१६. मंगलमय, तेजोमय, ज्ञान मय होनेसे “महोमय“ भि कहलाते है।
महाकारुणिको मन्ता महामन्त्रो महायति: । महानादो महाघोषो महेज्यो महसांपति:॥३॥
५१७. आप करुणाकर है, करुणानिधान है, सब जीवोंके प्रति दया धारण करते है, इसलिये आप “महाकारुणिक“ है।
५१८. सबको, सबके मन को, मन मे चल रहे विचारोंके आप जानते हो, इसलिये आप “मन्ता” हो।
५१९. अनेक मन्त्रोंके आप स्वामी हो, आप का नाम मात्र हि सबके लिये सर्वश्रेष्ठ मन्त्र है, इसलिये “महामन्त्र“ हो।
५२०. आप सबमे श्रेष्ठ इन्द्रिय निग्रही हो, आप सबमे श्रेष्ठ साधु हो, इसलिये “महायति” हो।
५२१. आप दिव्यध्वनी ओष्ठव्य ना होकर नाद मयी है, कल्याणकारी है, इसलिये “महानाद” हो।
५२२. धर्म का घोष करनेवाली महान वाणीसे “महाघोष” हो।
५२३. पूज्योंके पुज्य होनेसे अथवा महान यज्ञकर्ता होनेसे “महेज्य्” हो।
५२४. महालक्ष्मी, महासरस्वती, बहिरंग तथा अंतरंग सम्पत्ती के स्वामी होनेसे “महासाम्पत्ति“ कहे जाते है।
महाध्वरधरो धुर्य्यो महौदार्यो महिष्ठवाक्। महात्मा महसांधाम महर्षिर्महितोदय:॥४॥
५२५. अहिंसादि महाव्रतोके धारक आप “महाध्वरधर” हो ।
५२६. आप वीर हो, शूर हो, धुरंधर हो “धुर्य” हो।
५२७. आपने उदार होकर स्वयं हि मोक्ष का मार्ग सबको जतलाया है, इसलिये “महौदार्य“ हो।
५२८. आपकि वाणी महान है, इष्ट है, कल्याणकारी है इसलिये “महेष्टवाक“ हो।
५२९. सर्व जगत मे आपकि आत्मा पुज्य है, परमशुक्ल है, परमविशुध्द है इसलिये “महात्मा“ हो।
५३०. आप हि समस्त लोक के प्रकाशक हो, आपके पास केवलज्ञान कि तेज ज्योती है, आपका तेज अपार है इसलिये “महसांधाम“ हो।
५३१. चौसठ ऋध्दीयाँ आपको तप के बल से अनायास हि प्राप्त हुई है इसलिये “महर्षि“ हो।
५३२. सबके पुज्य होनेसे, उदयसे हि पुज्य होनेसे “महितोदय्“ कहलाते है।
महाक्लेशांकुश: शूरो महाभूतपतिर्गुरु:। महापराक्रमोऽनन्तो महाक्रोधारिपुवशी॥५॥
५३३. विषयकषायादि महान क्लेषोंपर आपने अंकुश रखा है, अथवा तप रुपी महाक्लेश करनेसे “महाक्लेशांकुश“ हो।
५३४. कर्मारि आदि महान शत्रूओंपर विजय पानेसे “शूर“ हो।
५३५. गणधर आदि विद्वान लोगोंके स्वामी होनेसे अथवा इन्द्रादि चक्रवर्ती जैसे महान व्यक्तियोंसे पुजीत होनेसे “महाभूतपति“ हो।
५३६. सबको क्षेमंकर उपदेश देकर सही मार्ग का प्रतिपादन करनेसे “गुरु“ हो।
५३७. आपका कर्मोंको जितनेसे अथवा ज्ञान शक्ति अद्भुत् होनसे आपने ” महापराक्रम” सिध्द किया है ।
५३८. आप अन्तरहित है, आप का नाम सदैव रहेगा तथा आपकि सिध्दशीला पर अनंतानंत काल के विराजमान रहेंगे इसलिये आप “अनंत“ है ।
५३९. क्रोध के सबसे बडे शत्रू आप होनेसे अर्थात आप “महाक्रोधारिपु“ है ।
५४०. आप इन्द्रिय को वश करने वाले “वशी“ है।
महाभवाब्दि संतारी र्महामोहाऽद्रि सूदन:। महागुणाकर: क्षान्तो महायोगीश्वर: शमी॥ ६॥
५४१. संसार सागर को पार करानेवाले होनेसे “महाभवाब्दिसंतारी“ हो।
५४२. मोहरूपी महाशत्रू का भेदन करनेसे अथवा महामोहांधकार का नाश करनेसे “महामोहाद्रिसूदन“ हो।
५४३. आपके गुण अनंत है, आप अनेक महान गुणोंके धारक है, इसलिये” महागुणाकर“ हो।
५४४. कषाय रहित होनेसे, क्षमावान होनेसे “क्षान्त” हो।
५४५. योगमे पारंगत होनेसे अथवा नियोग धारण कर मोक्ष प्राप्त करनेवाले होनेसे अथवा गणधरों जैसे महायोगीयोंके स्वामी होनेसे “महायोगीश्वर“ हो।
५४६. समस्त कर्मोंका क्षय कर आपने महान शांतता पायी है, सुख पाया है, इसलिये आप “शमी“ है।
महाध्यानपति र्ध्यात महाधर्मा महाव्रत:। महाकर्मारि हाऽऽत्मज्ञो महादेवो महेशिता॥७॥
५४७. परमशुक्लध्यान के धारक आप “महाध्यानपति” हो।
५४८. आपने महान धर्म अहिंसा का हि ध्यान कर उसे यथार्थ समझकर समस्त जीवोंको समझाया है आप “ध्यातमहाधर्म “ हो।
५४९. पंच महाव्रतोंको भि आपने सहजता से धारण किया है, इसलिये “महाव्रत“ हो।
५५०. महान शत्रू कर्म को ध्वस्त करनेसे आप “महाकर्मारिहा“ हो।
५५१. आप स्वयं आत्मस्वरुप है अथवा आत्मा का यथार्थ स्वरुप का ज्ञान रखते है , इसलिये “आत्मज्ञ“ हो।
५५२. समस्त देवोंकेभि आप पूज्य है, उनके लिये भि आप महान है, इसलिये “महादेव“ हो।
५५३. विलक्षण ऐश्वर्य के स्वामी होनेसे “महेशिता“ भि कहे जाते है।
सर्वक्लेशापह: साधु: सर्वदोषहरो हर:। असंख्येयोऽ प्रमेयात्मा शमात्मा प्रशमाकर:॥८॥
५५४. शारीरिक और मानसिक क्लेष दूर करने वाले आप “सर्वक्लेषापह“ है।
५५५. आपने रत्नत्रय सिध्द किया इसलिये “साधु“ हो।
५५६. समस्त जनोंके सर्व दोष आपके नाम मात्र से दूर होते है अथवा आप दोष हरने वाले होनेसे “सर्वदोषहर“ है।
५५७. अनेक जन्मोंके पाप को हराने वाले आप “हर” है, अथवा आपके उपदेश पर चलनेवालोंके अनेक् जन्मोंके पाप भि नष्ट होते है, इसलिये “हर“ है।
५५८. आप असंख्यात गुणोंके धारक है, आप के गुणोंकि संख्या करने का सामर्थ्य किसी मे नही है, इसलिये “असंख्येय“ हो।
५५९. आप किसीसेभि यथार्थ रुपमें जाने नही जा सकते, अथवा कोई भि आपको सम्पुर्ण जानने का सामर्थ्य नही रखता इसलिये आप “अप्रमेयात्मा“ है।
५६०. आप दोषोंका, दु:खोंका शमन करनेवाले होनेसे “शमात्मा“ हो।
५६१. आप स्वयंभि शांतमूर्ती होनेसे “प्रशमात्मा“ कहलाते हो।
सर्वयोगी श्वरोऽ चिन्त्य: श्रुतात्मा विष्टरश्रवा:। दान्तात्मा दमतीर्थेशो योगात्मा ज्ञानसर्वग:॥९॥
५६२. समस्त योगीयोंके पूज्य है, स्वामि है, ईश्वर है,. आप “सर्वयोगीश्वर“ है।
५६३. चिंतवन कि सीमासे परे है, इसलिये “अचिन्त्य” है।
५६४. आप कि आत्मा सर्व शास्त्रोंका रहस्यरुप है, अथवा आप भावश्रुतज्ञान– रूप है, इसलिये “श्रुतात्मा” है।
५६५. समस्त विश्व का समस्त ज्ञान आपमे समाविष्ट होनेसे अथवा तिनो लोकोंके समस्त पदार्थोंकि समस्त पर्यायोंके जाननेवाले आप ” विष्टरश्रवा” हो।
५६६. सबको आत्मा के स्वरुप को पानेकि शिक्षा देनेसे “दान्तात्मा” हो।
५६७. इंद्रिय दमन के तीर्थ के स्वामी होनेसे अथवा योग के दम के प्रवीण होनेसे “दमतीर्थेश” हो।
५६८. योग स्वरुप होनेसे अथवा आत्मासे ही आपका योग होनेसे “योगात्मा“ हो।
५६९. केवलज्ञान के द्वारा सर्वत्र व्याप्त होनेसे “ज्ञानसर्वग“ भि कहे जाते है।
प्रधानमात्मा प्रकृति: परम: परमोदय:। प्रक्षीणबन्ध: कामारि: क्षेमकृत् क्षेमशासन:॥ १०॥
५७०. एकाग्रता आत्मा का ध्यान चिंतन करनेसे “प्रधान” हो।
५७१. आपका अब केवलज्ञान के अलावा कोई स्वरुप नही, अर्थात आपहि “आत्मा” हो, आत्मरुप हो।
५७२. आप कृति प्रशंसनीय है अथवा आप हि ” प्रकृति” हो।
५७३. श्रेष्ठ होनेसे, ज्येष्ठ होनेसे, पूज्य होनेसे, महान यती तथा इन्द्रोद्वारा भि पुजित होनेसे आप “परम“ हो, परमात्मा हो ।
५७४. आपके उदित होने मात्र से कल्याण होता है इसलिए “परमोदय “ हो।
५७५. आपके कर्म बंध क्षीण होते होते गल गये है इसलिये आप “प्रक्षीणबन्ध“ हो।
५७६. आपने कामदेव का विनाश किया है, इसलिए आप “कामारि“ हो ।
५७७. आप सबका कल्याण करनेवाले “क्षेमकृत्“ हो।
५७८. आपने चलाया हुआ शासन भि कल्याणकारी होनेसे ” क्षेमशासन” हो।
प्रणव: प्रणय: प्राण: प्राणद: प्रणतेश्वर: । प्रमाणं प्रणिधिर्दक्षो दक्षिणोऽ ध्वर्युरध्वर:॥११॥
५७९. ध्वनीस्वरुप होनेसे, ॐकाररूप होनेसे “प्रणव“ हो।
५८०. सबके नेता होनेसे अथवा मित्र होनेसे अथवा प्रिय होनेसे “प्रणय” हो।
५८१. आप सबके लिये जीवनदायी हो, इसलिये “प्राण” कहे जाते हो।
५८२. दयालु होकर प्राणदान करनेसे अथवा प्राण का ज्ञान देनेसे “प्राणद” हो।
५८३. जो भि आपको प्रणाम करते है, जैसे इन्द्रादिक तथा समस्त जीव , उनका पालन करनेवाले होनेसे “प्रणतेश्वर“ हो।
५८४. आप लोकोंमे, देहसे, ज्ञानसे तथा सम्यकदर्शन के “प्रमाण“ है ।
५८५. सबके मर्मज्ञ होनेसे अथवा योगीयोंद्वारा गुप्त (आत्मामे) चिंतन के योग्य होनेसे “प्रणिधि” हो।
५८६. आप मोक्ष के कारण के लिये “दक्ष“ है।
५८७. सरल स्वभाव होनेसे “दक्षिण“ हो।
५८८. जैसे यज्ञ के पुरोहित तज्ञ होते है, वैसे हि कर्मोके यज्ञ मे आप श्रेष्ठ हो इस लिये ” अध्वर्यु“ हो।
५८९. सरल, सन्मार्ग कि प्रवृत्ति करनेवाले होनेसे “अध्वर” भि कहलाते है।
आनन्दो नन्दनो नन्दो वन्द्योऽ निन्द्योऽ भिनन्दन:। कामहा कामद: काम्य: कामधेनुररिञ्जय:॥१२॥
५९०. सदैव संतुष्ट है, आत्मसुखमे लीन है इसलिये आपको ” आनंद” कहा जाता है।
५९१. सबको आनंददायक सुखकारक होनेसे “नंदन“ हो।
५९२. आप स्वयं भि सुखस्वभावी है, “नंद” है।
५९३. आप स्तुत्य है, पूज्य है, “वंद्य” है ।
५९४. आप अठारह दोषोंसे रहित है, कोई भि ऐसा कारण नही जिससे आपकि निन्दा हो सके अर्थात निन्दा के अयोग्य होनेसे “अनिंद्य“ हो।
५९५. आपके निकट मे भय का कोई भि कारण नही होता है, तथा आप जहा भि विहार करते है, वहा आनंद मात्र हि चहु ओर होता है, इसलिए आपको “अभिनंदन” भि कहा जाता है।
५९६. कामदेव को हरानेसे “कामह“ हो।
५९७. कामना पूर्ती करनेवाले होनेसे “कामद” हो।
५९८. आपकि आपके स्वरुप कि प्राप्ति कि चाह भक्तोंको भव्य जीवोंको सदैव रहती है, इसलिये आप “काम्य“ हो।
५९९. इच्छित फल को देनेवाले आप को “कामधेनू” कहते है।
६००. समस्त शत्रुओंपर विजयी होनेसे आपको “अरिंजय” भि कहा जाता है।
इति महामुन्यादिशतम् ।
असंस्कृत सुसंस्कार: अप्राकृतो वैकृतान्तकृत्। अन्तकृत् कान्तगु: कान्त श्चिन्तामणिर भीष्टद:॥१॥
६०१. आप स्वभावसे हि अर्थात बिना किसी संस्कारोसेहि सुसंस्कारी है, इसलिये आप “असंस्कृतसुसंस्कार: है ।
६०२. आपके स्वरुपका किसी भि प्रकृतिसे उत्पन्न अथवा कृत ना होनेसे आप “अप्राकृत” हो ।
६०३. सब विकृतियोंका नाश करनेवाले आप “वैकृतान्तकृत्“ हो ।
६०४. संसार के अंत को अर्थात मोक्ष को सुगम करनेसे “अन्तकृत“ हो।
६०५. आपकि वाणी सुन्दर है, आप प्रभा अथवा आभा सुन्दर है, इसलिये “कान्तगु” हो।
६०६. शोभायुक्त (समवशरण कि अगणित शोभा) होनेसे “कान्त” हो।
६०७. इच्छित फल देने वाले हो, जैसे चिंतामणि रत्न मन् कि इच्छा जानकर् उसे पुर्ण करता है, इसलिये “चिन्तामणि“ हो।
६०८. शुभ फल देनेवाले अथवा भव्य जीवोंके लिये इष्ट फल देनेवाले होनेसे “अभिष्टद” भि कहे जाते है।
अजितो जितकामारि रमितोऽ मितशासन:। जितक्रोधो जितामित्रो जितक्लेशो जितान्तक:॥ २॥
६०९. कामक्रोधादि शत्रु आपको जित नही पाये, इसलिये आप “अजित“ हो।
६१०. आपने कामक्रोधादि शत्रुओंपर विजयी होकर उन्हे ध्वस्त परास्त कर दिया है, इसलिये “जितकामारि” हो।
६११. आपके ज्ञान कि, शक्तिकि, सुख कि कोई मर्यादा नही है, इसलिये “अमित” हो।
६१२. आपने बताया हुआ मार्ग, अर्थात शासन का भि कोई अंत नही, अर्थात आपका बताया हुआ मार्ग हि सदैव एकमेव सम्यक मोक्षमार्ग होगा इसलिये “अमितशासन“ हो।
६१३. क्रोधको जितनेसे अर्थात आप परमक्षमारुप होनेसे “जितक्रोध“ हो।
६१४. अमित्र अर्थात कर्म शत्रुओंपर विजयी होनेसे “जितामित्र” हो।
६१५. समस्त क्लेशोंपर मात करनेसे “जितक्लेश“ हो।
६१६. अंत को अर्थात यम को जितनेसे, मोक्ष को प्राप्त करने से “जितान्तक” भि कहे जाते है।
जिनेन्द्र परमानंदो मुनिन्द्रो दुन्दुभिस्वन: । महेन्द्र वन्द्यो योगीन्द्रो यतीन्द्रो नाभिनन्दन:॥३॥
६१७. गणधर आदि जिन के आप आद्य, वंद्य, पुज्य इन्द्र होनेसे “जिनेन्द्र“ हो।
६१८. उत्कृष्ट आनंद स्वरुप होनेसे अथवा आप का रुप आनंदकारी होनेसे अथवा आप सदैव आत्मा के आनंद मे लीन रहनेवाले होनेसे “परमानंद“ हो।
६१९. मुनियोंके इन्द्र, ज्येष्ठ, नेता होनेसे “मुनींद्र” हो।
६२०. आपकि ध्वनी दुन्दुभियोंके समान शुभ, कर्णप्रिय, आनंदकारी, सुखदायक और शुभसुचक है, इसलिए “दुन्दुभिस्वन“ हो ।
६२१. शत इन्द्र, महेन्द्र के भि आप पुज्य है, इसलिये “महेन्द्रवन्द्य“ हो ।
६२२. योगी, तप करनेवाले, मुनि आदियोंके इन्द्र होनेसे “योगीन्द्र” हो ।
६२३. ऋषीयोंके, यतीयोंके भि आप इन्द्र है, इसलिए आपको “यतीन्द्र” भि कहा जाता है।
६२४. नाभिराय के पुत्र होनेसे या आप स्वयं किसी का भि अभिनंदन करनेवाले नही होनेसे “नाभिनंदन“ है।
नाभेयो नाभिजोऽजात: सुव्रतो मनुरुत्तम:। अभेद्योऽ नत्ययोऽनाश्वान धिकोऽधिगुरु: सुगी:॥४॥
६२५. नाभि के पुत्र “नाभेय“ हो।
६२६. नाभि कुलमे जन्म लेनेसे “नाभिज“ हो ।
६२७. अब फिरसे उत्पन्न नही होगे इसलिये “अजात” हो।
६२८. अहिंसादि अनेक उत्तमव्रतोके धारक “सुव्रत“ हो।
६२९. कर्मभूमी कि रचना करनेसे “मनु” हो ।
६३०. श्रेष्ठ होनेसे “उत्तम“ हो।
६३१. आपको कर्म शत्रू तो क्या कोई भि भेद नही सकता इसलिये “अभेद्य“ हो।
६३२. आप का विनाश कभी नही होगा, इसलिये “अनत्यय“ हो।
६३३. अनशनादि तप करनेसे “अनश्वान“ हो।
६३४. सबसे आपमे “अधिक” है अथवा आप धिक्कारयोग्य नही है, इसलिये “अधिक“ हो।
६३५. सबसे उत्तम अर्थात मोक्षमार्ग का उपदेश देनेसे अथवा गुरुओंमे प्रथम होनेसे “अधिगुरु“ हो ।
६३६. आपकी वाणी अथवा दिव्यध्वनी कल्याणकारी होनेसे आप “सुगी” कहलाते है।
सुमेधा विक्रमी स्वामी दुराधर्षो निरुत्सुक:। विशिष्ट शिष्टभुक शिष्ट: प्रत्यय: कामनोऽनघ:॥५॥
६३७. आपकि बुध्दी सर्वश्रेष्ठ होनेसे अथवा आप का ज्ञान श्रेष्ठ ( केवलज्ञान) होनेसे “सुमेधा” हो ।
६३८. पहाडो जैसे कर्मारि का पराक्रम से नाश करनेसे अथवा जन्म –मृत्युके क्रमसे मुक्त होनेसे “विक्रमी” हो ।
६३९. आप तीनो जगत के अधिपति होने से या मुक्तिलक्ष्मी को प्राप्त करने से “स्वामी” हो।
६४०. कोई भि आपको निवार नही सकता आप “दुराधर्ष“ हो ।
६४१. आपने सब जान लिया है, इसलिए अब आप “निरुत्सुक“ हो ।
६४२. शिष्टोमे श्रेष्ठ होनेसे “विशिष्ट“ हो।
६४३. शिष्टोंका पालन करनेसे “शिष्टभुक्“ हो ।
६४४. स्वयं भि राग द्वेष मोहादि दोषोंसे दुर रहनेसे “शिष्ट:” हो।
६४५. ज्ञानस्वरुप होनेसे अथवा विश्वासरुप होनेसे अथवा स्वयं प्रमाण होनेसे “प्रत्यय” हो ।
६४६. सबके इच्छेय होनेसे अथवा कामना के योग्य होनेसे अथवा काम का नाश करनेवाले होनेसे “कामन“ हो ।
६४७. पापरहित होनेसे “अनघ” नामसे प्रसिध्द है।
क्षेमी क्षेमंकरोऽक्षय्य: क्षेमधर्मपति: क्षमी। अग्राह्यो ज्ञाननिग्राह्यो ध्यानगम्यो निरुत्तर॥ ६॥
६४८. आप सफल हो, अर्थात मोक्ष को प्राप्त कर आपने महान सफलता पायी है, इसलिये “क्षेमी” हो ।
६४९. सबका कल्याण करने वाले होनेसे “क्षेमंकर” हो ।
६५०. आप कभी भि ध्रौव्य को प्राप्त नही होंगे अथवा क्षय नही होनेसे “अक्षय्य” हो।
६५१. मोक्षमार्ग बतानेवाला, अथवा कल्याण करनेवाले धर्म के (जैन धर्मके) प्रवर्तक होनेसे “क्षेमधर्मपति“ हो ।
६५२. क्षमावान होनेसे “क्षमी” हो ।
६५३. इन्द्रियो के द्वारा आपका यथार्थ रुप ग्रहण नही किया जा सकता इसलिये “अग्राह्य“ हो ।
६५४. अपितु निश्चय रत्नत्रय मे अभेद से आपको समझा जा सकता है, इसलिये “ज्ञाननिग्राह्य” हो।
६५५. ध्यान के द्वारा शुध्दोपयोगमे भि आपको जाना जा सकता है, इसलिये “ध्यानगम्य” हो।
६५६. आपसे बेहतर कोई नही, अर्थात उत्कृष्टता कि सिढीमे आपसे उपर ( उत्तर अथवा उर्ध्व दिशामे) कोई नही है, इसलिये आप को “निरुत्तर” नामसे भि जाना जाता है।
सुकृती धातुरिज्यार्ह: सुनय श्चतुरानन:। श्रीनिवास श्चतुर्वक्त्र श्चतुरास्य श्चतुर्मुख:॥७॥
६५७. पुण्यके धारक होनेसे “सुकृती“ हो अर्थात आपने अनंत पुण्य करनेसे आप का यह रुप प्रकट हुआ है ।
६५८. शब्दोके धनी, खान या भंडार होनेसे “धातु“ हो।
६५९. पुज्य अथवा पुजा के योग्य होनेसे “इज्यार्ह” हो ।
६६०. नय को आपसे अच्छा कौन जानता है? इसलिये “सुनय“ हो।
६६१. समवशरण मे विद्यमान आपके चार दिशाओमें चार मुख दिखने से “चतुराननऽ हो ।
६६२. बहिरंग और अंतरंग लक्ष्मी का निवासस्थान होनेसे “श्रीनिवास“ हो ।
वैसे एक मुख होकर भि चार दिखने से…….
६६३. “चतुर्वक्त्र“ हो।
६६४. “चतुरास्य“ हो।
६६५. “चतुर्मुख“ के नाम से भि जाने जाते है।
सत्यात्मा सत्यविज्ञान: सत्यवाक्सत्यशासन:। सत्याशी सत्यसन्धान: सत्य: सत्यपरायण:॥८॥
६६६. आप हि सत्यस्वरुप अर्थात आत्मस्वरुप है, इसलिये “सत्यात्मा” हो ।
६६७. आपका ज्ञान सम्पुर्ण सत्याधिष्ठीत है, इसलिये “सत्यविज्ञान“ हो ।
६६८. आपकि वाणी पदार्थोंका यथार्थ स्वरुप प्रकट करती है, आपके वचन सदैव सत्यस्वरुप होनेसे “सत्यवाक्“ हो।
६६९. आपने बताया हुआ मार्ग अर्थात शासन यथार्थ है, मोक्ष प्राप्त करानेवाला है इसलिये ” सत्यशासन“ हो।
६७०. सत्य को आपने यथार्थ मे प्राप्त किया है, इसलिये “सत्याशी” हो ।
६७१. आपने सत्य के सदैव हि वाणीसे जोडके रखा है, आपके वचन सत्य हि रहते है, इसलिये “सत्यसन्धान“ हो ।
६७२. आप स्वयं आपके परम शुक्ल लेष्या युक्त विशुध्द आत्मासे शुध्द मोक्षस्वरुपहि है, “सत्य” हि है।
६७३. आप सदैव सत्य और सत्यमात्र का आधार लेनेसे “सत्यपरायण” भि कहे जाते है।
स्थेयान् स्थवीयान्नेदीयान् दवीयान् दूरदर्शन: । अणोरणियान अनणु र्गुरुराद्यो गरीयसाम्॥९॥
६७४. आप स्थिर है, अविचल है, अथवा आप उर्जा है; इसलिये “स्थेयान“ है।
६७५. आप स्थूल हो, भरपुर हो, या आपका प्रभाव तिनो लोकमे पाया जाता है, इसलिये आप “नेदियान” हो ।
६७६. आप दूर हो, अर्थात सर्व प्रकारके सर्व पापोंसे दूर हो, इसलिये ” दवियान्” हो।
६७७. आप के दर्शन कहीसे भि हो जाते है, अर्थात जो भि आपकि प्रतिमा मन मे रखते है, वे कहि भि हो, आपके दर्शनअ पाते है, इसलिये “दूरदर्शन“ हो।
६७८. परमाणु से भि सुक्ष्म हो, अर्थात आप का यथार्थ रुप मात्र आपको हि दृगोचर है, आप “अणोरणीयान“ (अणो: अणीयान = अणू मे भि अणूरुप“) हो ।
६७९. आप अनंतज्ञान राशी स्वरुप हो, इसलिये “अनणु“ हो ।
६८०. गुरुओंमे आद्य अथवा प्रथम अथवा ज्येष्ठ होनेसे “आद्यगुरु हो ।
६८१. गुरुओं मे गुरु हो यह श्लोक विलक्षण है, इसमे भगवान को स्थूल, सुक्ष्म, सर्वव्यापक, अनंतरुप, ज्येष्ठ, आद्य, गुरु, तथा सर्वत्रदर्श कहा गया है।
सदायोग: सदाभोग: सदातृप्त: सदाशिव:। सदागति: सदासौख्य: सदाविद्य: सदोदय:॥१०॥
६८२. सदैव योगस्वरुप होनेसे “सदायोग“ हो ।
६८३. अनंतवीर्य के भोक्ता होनेसे “सदाभोग“ हो ।
६८४. कोई कामना ना रहनेसे “सदातृप्त“ हो।
६८५. सदा मोक्षस्वरुप होनेसे “सदाशिव“ हो ।
६८६. शाश्वत लक्ष्य रहने से “सदागति” हो ।
६८७. अनंतसुखके धारी होनेसे “सदासुख” हो।
६८८. सदा ज्ञानस्वरुप है, अर्थात केवलज्ञान रुप होनेसे अथवा सदैव विद्यमान रहनेसे “सदाविद्य” हो ।
६८९. सदैव उदित होनेवाले भानूसम ज्ञानप्रकाश से अज्ञान नष्ट करनेवाले होनेसे “सदोदय“ भि कहलाते है।
सुघोष: सुमुख: सौम्य: सुखद: सुहित: सुह्रुत:। सुगुप्तो गुप्तिभृद् गोप्ता लोकाध्यक्षो दमीश्वर:॥११॥
६९०. शब्द या वाणी सुंदर होनेसे “सुघोष” हो।
६९१. सुंदर वदन के कारण “सुमुख“ हो ।
६९२. शांत रहनेसे “सौम्य“ हो ।
६९३. सुखकारक होनेसे “सुखद“ हो ।
६९४. सम्यक हितका हि उपदेश देनेसे “सुहित“ हो ।
६९५. आप सबके मित्र है, उनके कल्याणकारी है, उनको पार लगानेवाले है, “सुह्रुत“ है।
६९६. मिथ्यादृष्टीयोंको, अभव्य जीवोंको आपका स्वरुप दिखता नही, अथवा उनसे “सुगुप्त” रहता है।
६९७. तिनो गुप्तियोंका सदैव पालन करने से ” गुप्तिभृत्“ हो ।
६९८. पापोंसे आत्मा कि अथवा समस्त जीवोंके रक्षक होनेसे “गोप्ता” हो ।
६९९. तीनो लोकोंको प्रत्यक्ष देखनेसे “लोकाध्यक्ष” हो।
७००. इन्द्रीय इच्छा, कामना, वासना का तप के द्वारा दमन करनेसे “दमीश्वर“ भि कहलाते है।
इति असंस्कृतादिशतम् ।