श्रीमज्जिनसहस्रनाम स्तोत्र

स्वयंभूवे नमस्त्युभ्यमुत्पाद्यात्मान मात्मनि। स्वात्मनैव तथोद्भूत वृत्तयेऽचिन्त्यवृत्तये॥१॥
अर्थ : हे भगवन् ! आपने स्वयम् अपने आत्मा को प्रकट किया है, अर्थात् आप अपने आप उत्पन्न हुए हैं, इसलिए आप स्वयंभू कहलाते हैं ।
आपको आत्मवृत्ति अर्थात् आत्मा में ही लीन अथवा तल्लीन रहने योग्य चारित्र्य तथा अचिन्त्य महात्म्य की प्राप्ति हुई है, इसलिये आपको मेरा नमस्कार हो।

नमस्ते जगतां पत्ये लक्ष्मीभर्त्रे नमोस्तु ते । विदावरं नमस्तुभ्यं नमस्ते वदतांवर ॥२॥
अर्थ – आप जगत के स्वामी हैं, इसलिये आपको मेरा नमस्कार हो, आप अंतरंग तथा बहिरंग दोनों लक्ष्मी के स्वामी हैं, इसलिये आपको मेरा नमस्कार हो।
आप विद्वानों मे और वक्ताओं में भी श्रेष्ठतम है, इसलिये भी आपको मेरा नमस्कार हो।

कर्मशत्रूहणं देव मानमन्ति मनीषिणः। त्वामानमन्सुरेण्मौलि-भा-मालाऽभ्यर्चितक्रमम्॥३॥
अर्थ- हे देव ! बुध्दिमान आपको कामदेव रूपी शत्रू का नाश करनेवाला मानते हैं, तथा इन्द्र भी अपने मुकुट मणिके कान्तिपुंज से आपके पादकमलों की पूजा करते हैं, अर्थात् उनके शीष आपके चरणो में झुकाकर आपको नमस्कार करते हैं, इसलिये आपको मेरा भी नमस्कार हो ।

ध्यान-द्रुघण-निर्भिन्न-घन-घाति-महातरुः। अनन्त-भव-सन्तान-जयादासीदनन्तजित्॥४॥
अर्थ – आपने अपने ध्यानरूपी कुठार ( कुल्हाड़ी) से बहुत कठोर घातिया कर्मरूपी बडे वृक्षी को काट डाला है तथा अनन्त जन्म-मरणरूप संसार की संतान परंपरा को जीत लिया है इसलिये आप अनन्तजित कहलाते हैं ।

त्रैलोक्य-निर्जयाव्याप्त-दुर्दर्पमतिदुर्जयम्। मृत्युराजं विजित्यासीज्जिन! मृत्युंजयो भवान्॥५॥
अर्थ – हे जिन! तीनों लोकों का जेता होने का जिसे अत्यंत गर्व हुआ है, तथा जो अन्य किसी से भी जीता नहीं जा सकता ऐसे मृत्यु को भी आपने जीत लिया है इसलिए आप ही मृत्युंजय कहलाते हैं ।

विधूताशेष – संसार – बन्धनो भव्यबान्धव:। त्रिपुराऽरि स्त्वमेवासि जन्म मृत्यु-जरान्तकृत्॥६॥॥
अर्थ – संसार के समस्त बंधनों का नाश करनेवाले आप, भव्य जीवों के बन्धू हैं । जन्म, मृत्यु और वार्धक्य रूपी तीनों अवस्थाओंका नाश करनेवाले भी आप ही हैं, अर्थात् आप ही त्रिपुरारि हैं ।

त्रिकाल- विषयाऽशेष तत्त्वभेदात् त्रिधोत्थितम्॥ केवलाख्यं दधच्चक्षु स्त्रिनेत्रोऽसि त्वमीशित:॥ ७॥
अर्थ- हे अधीश्वर, भूत, भविष्य, वर्तमान तीनों कालो ंके समस्त तत्त्वों एवम् उनके तीनों भेदों को जानने योग्य केवलज्ञान रूप नेत्र आप धारण करते हैं, इसलिये आप ही त्रिनेत्र हैं ।

त्वामन्धकान्तकं प्राहु र्मोहान्धाऽसुर- मर्दनात्।अर्ध्दं ते नारयो यस्मादर्धनारीश्वरोऽस्यत:॥८॥
अर्थ – आपने मोहरुपी अन्धासुर का नाश किया है, इसलिए आप अन्धकान्तक कहलाते हैं, आपने आठ मे ंसे चार शत्रू ( अर्ध न अरि) का नाश किया है, इसलिये आपको अर्धनारीश्वर भी कहते हैं ।

शिव: शिवपदाध्यासाद् दुरिताऽरि हरो हर:। शंकर कृतशं लोके शंभवस्त्वं भवन्सुखे॥९॥
अर्थ – आप शिवपद अर्थात मोक्षनिवासी है इसलिये शिव कहे गये, पापोको हरने वाले है, इसलिये हर है, जगत का दाह शमनेवाले है इसलिए शंकर है और सुख उत्पन्न है, इसलिए शंभव कहे गये है।

वृषभोऽसि जगज्ज्येष्ठ: पुरु: पुरुगुणोदयै:।नाभेयो नाभि सम्भूते रिक्ष्वाकु-कुल्-नन्दन:॥१०॥
अर्थ – आप जगतमे ज्येष्ठ है, इसलिएअ आप वृषभ है, आप संपुर्ण गुणोंकि खान होनेसे पुरु है, नाभिपुत्र होनेसे नाभेय, नाभि के काल मे होनेसे नाभिसमभूत, और इक्ष्वाकू कुल मे जन्म लेने कि वजह से आपको इक्ष्वाकू कुलनन्दन भि कहे जाते है।

त्वमेक: पुरुषस्कंध स्त्वं द्वे लोकस्य लोचने। त्वं त्रिधा बुध्द-सन्मार्ग स्त्रिज्ञ स्त्रिज्ञानधारक:॥११॥
अर्थ- सब पुरुषोंमे आपही एक श्रेष्ठ है, लोगोंके दो नेत्र होने के कारण आप के दो रूप धारक है, तथा मोक्षके तीन मार्गके एकत्व को आपने जाना है, आप तीन काल एक साथ देख सकते है और रत्नत्रय धारक है, इसलिये आप त्रिज्ञ भि कहलाते है।

चतु:शरण मांगल्य – मूर्तिस्त्वं चतुरस्रधी। पंचब्रह्ममयो देव पावनस्त्वं पुनीहि माम्॥१२॥
अर्थ – इस जगत् मे आपहि एक चार मांगल्योंका एकरुप है और आप चारो दिशाओंके समस्त पदार्थोंको एक् साथ जानते है, इसलिए आप चतुरस्रधी कहलाते है। आपहि पंच परमेष्ठीस्वरुप है, पावन करनेवाले है, मुझे भि पवित्र किजिए।

स्वर्गाऽवतारिणे तुभ्यं सद्योजातात्मने नम:। जन्माभिषेक वामाय वामदेव नमोऽस्तुते॥१३॥
अर्थ – आप स्वर्गावतरण के समय हि सद्योजात ( उसी समय उत्पन्न ) कहलाये थे और जन्माभिषेक के समय आप बहोतहि सुंदर दिख रहे थे, इसलिये हे वामदेव आपको नमस्कार हो।

सन्निष्कान्ता वघोराय, पदं परममीयुषे। केवलज्ञान-संसिध्दा वीशानाय नमोऽस्तुते॥१४॥
अर्थ- दीक्षासमय मे आपने परम शान्तमुद्रा धारण कि थी, तथा केवलज्ञान के समय आप परमपद धारी होकर ईश्वर कहलाए, इसलिये आपको नमस्कार हो।

पुरस्तत्पुरुषत्वेन विमुक्त पदभाजिने। नमस्तत्पुरुषाऽवस्थां भाविनीं तेऽद्य विभ्रते॥१५॥
अर्थ – अब आगे शुध्द आत्म स्वरुप के द्वारा मोक्ष को प्राप्त होंगे, तथा सिध्द अवस्था धारण करनेवाले है, इसलिये हे विभो मेरा आपको नमस्कार है।

ज्ञानावरण- निर्हासा न्नमस्तेऽनन्तचक्षुषे। दर्शानावरणोच्छेदा न्नमस्ते विश्वदृश्वने॥१६॥
अर्थ- ज्ञानावरण कर्म का नाश करनेसे आप अनन्तज्ञानी कहलाते है और दर्शनावरण कर्म के नाशक आप विश्वदृश्वा ( समस्त विश्व एक साथ देखने वाले) कहलाते है, इसलिए हे देव मेरा आपको नमस्कार है।

नमो दर्शनमोहघ्ने क्षायिकाऽ मलदृष्टये। नम श्चारित्रमोहघ्ने विरागाय महौजसे॥ १७॥
अर्थ – आप दर्शन मोहनीय कर्म का नाश करने वाले तथा निर्मल क्षायिक सम्यकदर्शन के धारक है, आपने चारित्र्यमोहनीय कर्म का नाश किया है और वीतराग एवम् तेजस्वी है, इसलिए हे प्रभु मेरा आपको नमस्कार है।

नमस्तेऽ नन्तवीर्याय नमोऽ नन्त सुखत्मने। नमस्ते अनन्तलोकाय लोकालोक वलोकिने॥१८॥
अर्थ – आप अनन्तवीर्यधारी, अनन्तसुखमे लीन तथा लोकालोक को देखने वाले हो, इसलिए हे अनन्तप्रकाशरूप मेरा आपको नमस्कार है।

नमस्तेऽ नन्तदानाय नमस्तेऽ नन्तलब्धये। नमस्तेऽ नन्तभोगाय नमोऽ नन्तोप भोगिने॥१९॥
अर्थ – आपके दानांतरायकर्म का नाश हुआ है और अनन्त लब्धियोंके धारक है, आपका लाभ, भोग तथा उपभोग के अंतराय कर्म का भि नाश हुआ है इसलिए हे विभो आप अनन्त भोग तथा उपभोग को प्राप्त है, मेरा आपको नमस्कार है।

नम: परमयोगाय नम्स्तुभ्य मयोनये। नम: परमपूताय नमस्ते परमर्षये॥२०॥
अर्थ – हे परम देव आप परमध्यानी है, आप ८४ लक्ष योनीसे रहित है, आप परमपवित्र है, आप परम ऋषी है, इसलिए मेरा आपको नमस्कार हो।

नम: परमविद्याय नम: परमतच्छिदे। नम: परम तत्त्वाय नमस्ते परमात्मने॥२१॥
अर्थ- आप केवलज्ञानधारी हो, इसलिए आपको नमस्कार हो। आप सब परमतोंका नाश करनेवाले है,इसलिए आपको नमस्कार हो। आप परमतत्त्वस्वरूप अर्थात रत्नत्रय – रूप है तथा आप हि परम आत्मा है, इसलिए आपको नमस्कार हो।

नम: परमरूपाय नम: परमतेजसे। नम: परम मार्गाय नमस्ते परमेष्ठिने॥२२॥
अर्थ- आप बहोत सुंदर रुप धारी परम तेजस्वी हो, इसलिए आपको नमस्कार हो। आप रत्नत्रयरूपी मोक्षमार्ग-स्वरूप है तथा आप सर्वोच्चस्थान मे रहनेवाले परमेष्ठी है, इसलिए आपको नमस्कार हो।

परमर्धिजुषे धाम्ने परम ज्योतिषे नम:। नम: पारेतम: प्राप्त धाम्ने परतरात्मने॥२३॥
अर्थ- आप मोक्षस्थान को सेवन करनेवाले है, तथा ज्योतिस्वरुप है, इसलिए आपको नमस्कार हो। आप अज्ञानरुपी तमांधकार के पार अर्थात परमज्ञानी प्रकाशरुप है तथा आप सर्वोत्कृष्ट है, इसलिए आपको नमस्कार हो।

नम: क्षीण कलंकाय क्षीणबन्ध ! नमोऽस्तुते। नमस्ते क्षीण मोहाय क्षीणदोषाय ते नम:॥२४॥
अर्थ- आप कर्म – रुपी कलंकसे रहित है, आप कर्मोके बन्धनसे रहित है, आप मोहनीय कर्म नष्ट हुए है तथा आप सब दोषोंसे रहीत है, इसलिए आपको नमस्कार हो।

नम: सुगतये तुभ्यं शोभना गतिमियुषे। नमस्तेऽ तीन्द्रिय ज्ञान् सुखायाऽ निन्द्रियात्मने॥२५॥
अर्थ – आप मोक्षगतिको प्राप्त है, इसलिए आप सुगति है, आप इन्द्रियोको से ना जाने जानेवाले ज्ञान-सुख के धारी है तथा स्वयं भि अतिन्द्रिय अगोचर है, इसलिए आपको नमस्कार हो।

काय बन्धन निर्मोक्षा दकाय नमोऽस्तु ते। नमस्तुभ्य मयोगाय योगिना मधियोगिने॥२६॥
अर्थ – शरीर बन्धन नाम कर्मको नष्ट करने के कारण आप शरीर – रहित कहलाते है, आप मनवचकाययोगसे रहित है और आप योगियोंमेभि सर्वोत्कृष्ट है, इसलिए हे विभो आपको मेरा नमस्कार हो।

अवेदाय नमस्तुभ्यम कषायाय ते नम:। नम: परमयोगीन्द्र वन्दिताङिंघ्र द्वयाय ते॥२७॥
अर्थ – तीनो वेदोंका नाश आपने दसवे गुणस्थान मे हि किया है, इसलिए आप अवेद कहलाते है, आपने कषायोंका भि नाश किया इसलिए आप अकषाय कहलाते है, परम योगीराज भि आपके दोनो चरणकमलो के नमन करते है, इसलिए हे प्रभो, मेरा भि आपको नमस्कार हो।

नम: परम विज्ञान! नम: परम संयम!। नम: परमदृग्दृष्ट परमार्थाय ते नम:॥२८॥
अर्थ – हे परम विज्ञान प्रभू, हे उत्कष्टज्ञान धारी, हे परम संयमधारी आप परम दृष्टीसे परमार्थ को देखते है तथा जगत् कि रक्षा करनेवाले है, इसलिए मेरा आपको नमस्कार हो।

नम्स्तुभ्य मलेश्याय शुक्ललेश्यां शकस्पृशे। नमो भव्येतराऽवस्था व्यतीताय विमोक्षिणे॥२९॥
अर्थ – हे परम देव! आप लेश्यांओसे रहित है, तथा शुध्द परमशुक्ल लेश्याके कुछ उत्तमअंश को स्पर्श करनेवाले है, आप भव्य अभव्य दोनो अवस्थाओंसे रहित है और मुक्तरूप है, इसलिए मेरा आपको नमस्कार है।

संज्ञय संज्ञि द्वयावस्था व्यतिरिक्ताऽ मलात्मने। नमस्ते वीत संज्ञाय नम: क्षायिकदॄष्टये॥३०॥
अर्थ – आप संज्ञी भि नही है, असंज्ञी भि नही है, आप निर्मल शुध्दात्मा धारी है, आप आहार, भय, निद्रा तथा मैथुन इन् चारो संज्ञाओंसे रहित है और आप क्षायिक सम्यकदृष्टी भि है, इसलिए हे करुणानिधान, मेरा आपको नमस्कार हो।

अनाहाराय तृप्टाय नम: परमभाजुषे। व्यतीताऽ शेषदोषाय भवाब्धे पारमीयुषे॥३१॥
अर्थ – आप आहार ना लेते हुए भि सदैव तृप्त रहते है, अतिशय कांतियुक्त हैअ, समस्त दोषोंसे मुक्त है, तथा संसाररूपी समुद्र के पार है, इसलिये आपको मेरा नमस्कार हो।

अजराय नमस्तुभ्यं नमस्ते स्तादजन्मने। अमृत्यवे नमस्तुभम चलायाऽ क्षरात्मने॥३२॥
अर्थ – आप जन्म, बुढापा, मृत्युसे रहित है, अचल है, अक्षरात्मा है इसलिये हे तारक, मेरा आपको नमस्कार हो।

अलमास्तां गुणस्तोत्रम नन्तास्तावका गुणा। त्वां नामस्मृति मात्रेण पर्युपासि सिषामहे ॥३३॥
अर्थ- हे त्रिलोकिनाथ! आपके अनंतगुण है अर्थात आपके सब गुणोंका वर्णन असंभव है, इसलिये केवल आपके नामोंका हि स्मरण करके आपकी उपासना करना चाहते है।

एवं स्तुत्वा जिनं देव भक्त्या परमया सुधी:। पठेदष्टोत्तरं नाम्नां सहस्रं पापशान्तये॥३४॥
अर्थ – इस प्रकार उत्कृष्ट भक्तिपुर्वक जिनेन्द्र देव कि करके सुधीजन आगे आये हुए एक सहस्र ( १००८) नामोंको निरंतर पढे।

॥इति जिनसहस्रनाम प्रस्तावना॥

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