बृहन् बृहस्पती र्वाग्मी वाचस्पती रुदारधी:। मनीषी धिषणो धीमान् शेमुषीशो गिरांपति:॥१॥
७०१. देवोंके गुरु बृहस्पती के भि गुरु या श्रेष्ठ होनेसे “बृहद बृहस्पती“ हो।
७०२. आपकी वाणी अतुलनीय, नय और प्रमाण से युक्त है. आप विलक्षण वक्ता अर्थात “वाग्मी” हो।
७०३. आपका वाणीपर प्रभुत्व है, आपसे विवाद या तर्क मे कोई जीत नही सकता, अथवा आपकी वाणी सदैव सत्य होती है इसलिये “वाचस्पती” हो।
७०४. आपकी बुध्दी उदार है, आप उपदेश देते हुए समानतासे उदारता से सबके लिए देते है, इसलिये “उदारधी“ है।
७०५. बुध्दीमान होनेसे अथवा सबके हृदय मे वांछित रहनेसे “मनीषी” है।
७०६. केवलज्ञान धारण करनेवाली आपकी बुध्दी अपार होनेसे “धीषण” है।
७०७. इसी कारण से आप “धीमान्” है।
७०८. आप “शेमुषीश” हो।
७०९. सब मुख्य तथा गौण भाषाओंके स्वामी होनेसे “गिरांपति” के नामसे भि जाने जाते है।
नैकरुपो नयोत्तुंगो नैकात्मा नैकधर्मकृत्। अविज्ञेयोऽ प्रतर्क्यात्मा कृतज्ञ: कृतलक्षण:॥ २॥
७१०. अनेकांत के व्याख्याता होनेसे अथवा जन्म, भाषा, पुरुषार्थ, बुध्दी, चारित्र्य, ज्ञान, गुण, सुख के परिवेक्षमेआपके हर के मनमे अनेक रुप होनेसे “नैकरुप” हो।
७११. नयोंका उत्कृष्ट स्वरुप कहके द्रव्यको परिभाषित करनेसे “नयोत्तुंग” हो।
७१२. आपके आत्मा मे अनेक गुण है, सुख है, बल है, ज्ञान है, शांति है इसलिये“नैकात्मा“ हो।
७१३. पदार्थ का अनेकांतसे अनेक धर्म बतानेसे” नैकधर्मकृत” हो।
७१४. साधारण जनोके ज्ञानके अपार होनेसे “अविज्ञेय“ हो।
७१५. आपके स्वरुपमे, वाणीमे, वचन में कोई वितर्क नही चल सकता अर्थात आप तर्कसे परे हो, इसलिये ” अप्रतर्क्यात्मा” हो।
७१६. आप ज्ञानकृत हो, विशाल हृदय हो, सर्वव्यापी हो, इसलिये “कृतज्ञ“ हो।
७१७. एक हजार आठ सुलक्षणोसे युक्त होनेसे “कृतलक्षण” भि कहलाते है।
ज्ञानगर्भो दयागर्भो रत्नगर्भ: प्रभास्वर:। पद्मगर्भो जगद्गर्भो हेमगर्भ: सुदर्शन:॥३॥
७१८. अंतरंग मे अर्थात आत्मा मे ज्ञान होनेसे अथवा गर्भसे हि तीन ज्ञानके धारी होनेसे “ज्ञानगर्भ” हो।
७१९. दयालु होनेसे, करुणामय होनेसे अथवा गर्भ मे आप माता को पीडा ना हो इसलिये हलन चलन नही करते थे इसलिये “दयागर्भ” हो।
७२०. रत्नत्रय् रुपी आत्मा होनेसे, आपके गर्भ मे आते हि, आपके पिता के आंगन मे रत्नवर्षा होनेसे “रत्नगर्भ” हो।
७२१. आपकी वाणी प्रभावी है, कल्याणकारी है, इसलिये “प्रभास्वर” हो।
७२२. गर्भसे लक्ष्मी प्राप्त होनेसे अथवा आपके गर्भमे आते हि, माता पिता का वैभव बढनेसे “पद्मगर्भ“ हो।
७२३. आपके ज्ञान मे समस्त जगत समाहित है, अथवा आपने जगत् के कल्याण के लिये हि मानो जन्म लिया है, इसलिये “जगद् गर्भ“ हो।
७२४. हिरण्यगर्भ ( जिसके कोई बाह्य लक्षण नही दिखते) होनेसे आप “हेमगर्भ” हो।
७२५. आप का दर्शन सुंदर है, अथवा आपने सम्यक पथ दर्शाया है, इसलिये “सुदर्शन” भि कहे गये है ।
लक्ष्मीवान्स्त्री दशाध्यक्षो दृढीयानिन ईशिता। मनोहारो मनोज्ञांगो धीरो गम्भीरशासन:॥४॥
७२६. समवशराणादि तथा केवलज्ञान रुप लक्ष्मी के अधिपती होनेसे “लक्ष्मीवान“ हो।
७२७. तेरह प्रकार के उत्तम चारित्र्य के धारी होनेसे अथवा तिनो दशाओंमे (बाल–युवा– वृध्द) एक समान दिखनेसे, लगनेसे, होनेसे “त्रिदशाध्यक्ष“ हो।
७२८. दृढ होनेसे “दृढीयान” हो।
७२९. सबके स्वामी होनेसे “इन” हो।
७३०. महान होनेसे, जेता होनेसे, स्वामी होनेसे “ईशिता” हो।
७३१. भव्य जीवोंके अंत:करण को हरनेवाले “मनोहर” हो।
७३२. आपक समचतुरस्त्र संस्थान है, आपके अंगोपांग मनोहर है, आपने मन को हरनेवाले ज्ञान कि, अंगोकि रचना कि है, इसलिए “मनोज्ञांग“ हो।
७३३. बुध्दी को प्रेरित कर भव्य जीवोंको सुबुध्दी बनानेवाले होनेसे अथवा आपकि वाणी सम्मोहित करनेवाली होनेसे “धीर“ हो।
७३४. आपका शासन सखोल तथा सशक्त होनेसे “गम्भीरशासन” के नामसे भी आपको जाना जाता है।
धर्मयुपो दयायागो धर्मनेमी र्मुनीश्वर:। धर्मचक्रायुधो देव: कर्महा धर्मघोषण:॥५॥
७३५. धर्म के आधार स्तंभ होनेसे अथवा धर्म कि विजय कि यशोगाथा कहनेवाला किर्तीस्तंभ होनेसे “धर्मयुप“ हो।
७३६. जीवोंपर दया करना हि आपका याग अथवा यज्ञ है, इसलिये “दयायाग” हो।
७३७. धर्मरथ कि धुरा अथवा परिधी होनेसे “धर्मनेमी” हो।
७३८. मुनीयोंके पुज्य ईश्वर होनेसे “मुनीश्वर“ हो।
७३९. धर्म का चक्र तथा धर्म का चलना हि आपका शस्त्र है, इसलिये “धर्मचक्रायुध“ हो।
७४०. परमानंद मे लीन होनेसे अथवा आत्मा मे स्वभाव मे हि क्रीडा करनेसे ” देव” हो।
७४१. कर्मोंके नाशक “कर्महा“ हो।
७४२. धर्म का उपदेश देने से अथवा धर्म के उन्नयन कि घोषणा करनेसे “धर्मघोषण“ भि कहे जाते है।
अमोघवाग मोघाज्ञो निर्मलोऽ मोघशासन:। सुरुप: सुभगस्त्यागी समयज्ञ समाहित:॥ ६॥
७४३. यथार्थ का बोध करानेवाली वाणी होनेसे अथवा निर्दोष, सफल, लक्ष्य तक पहुंचानेवाली वाणी होनेसे “अमोघवाक” हो।
७४४. कभी व्यर्थ ना होनेवाली आज्ञा होनेसे “अमोघाज्ञ” हो।
७४५. मलरहित होनेसे “निर्मल” हो।
७४६. कभी व्यर्थ ना होनेवाला, अंतिम लक्ष्य “मोक्ष” तक ले जाने वाला आपका शासन होनेसे “अमोघशासन“ हो।
७४७. आप का रुप सौख्यदायी, आनंदकारी, कल्याणप्रद होनेसे “सुरुप“ हो।
७४८. शुभंकर होनेसे अथवा ज्ञान का अतिशय माहात्म्य होनेसे “सुभग“ हो।
७४९. आपके पादमूल मे समस्त जीव प्राण का अभय तथा ज्ञान पाते है, अर्थात आप अभयदान तथा ज्ञानदान करनेसे आप को “त्यागी“ भि कहा जाता है।
७५०. समय अर्थात आत्मा का और समय अर्थात काल का यथार्थ सकल् ज्ञान होनेसे “समयज्ञ“ हो।
७५१. अपने ज्ञान से समस्त जीवोके जीवन के सदैव वर्तमान रहनेसे अथवा सर्वसमावेशक होनेसे अथवा समस्त प्राणीयोंका समान हित चाहनेसे “समाहित“ भी आपको हि कहा जाता है।
सुस्थित” स्वास्थ्यभाक् स्वस्थो निरजस्को निरुध्दव:। अलेपो निष्कलंकात्मा वीतरागो गतस्पृह: ॥७॥
७५२. अनंत सुख के धारी अथवा निश्चल रहनेसे आप सदैव “सुस्थित“ हो ।
७५३. आप स्वयंकि, आत्माकि हि निश्चलता को सेवन करते हो, आपको संसारी भोजन कि आवश्यकता नही इसलिये “स्वास्थ्यभाक्“ हो ।
७५४. स्व मे स्थित हो इसलिये अथवा आपको कोई रोग, व्याधी नही होती इसलिये “स्वस्थ” हो ।
७५५. कर्म रज रहित होनेसे अथवा घातिकर्म को नही धारण करनेसे “निरजस्क“ हो ।
७५६. आपने सब कर्म तथा कषायोंको निरुध्द किया, उनपर अंकुश रखा है, इसलिये अथवा आपका कोई स्वामी ना होनेसे “निरुध्दव“ हो ।
७५७. आपके आत्मा पर कोई लेप नही, सब कर्म झड गये है, आप “अलेप“ हो ।
७५८. आपके आत्मा पर कोई कलुष नही है, वह निर्मल शुध्द, परमशुक्ल है, इसलिये “निष्कलंकात्मा“ हो ।
७५९. आपके रागादि अठारह दोषरहित है, इसलिये “वीतराग” है ।
७६०. आपकी सारी इच्छाए, कांक्षाए खत्म हो गयी है, आप इच्छारहित है इसलिये “गतस्पृह“ नामसे भि पुज्य है ।
वश्येन्द्रियो विमुक्तात्मा नि:सपत्नो जितेन्द्रिय: । प्रशान्तोऽ नन्तधामर्षि र्मंगलं मलहानघ:॥ ८॥
७६१. इन्द्रियोंके वश करनेसे “वश्येन्द्रिय” हो।
७६२. संसार बन्धनसे आपकि आत्मा होनेसे “विमुक्तात्मा” हो।
७६३. आपके अब कोई शत्रु नही है, अथवा दुष्ट भाव से रहित निष्कंटक होकर “नि:सपत्न” हो।
७६४. इन्द्रियोंको जितकर “जितेन्द्रिय” हो।
७६५. शान्त होनेसे अथवा रागद्वेष समाप्त होनेसे “प्रशांत” हो।
७६६. आपके ज्ञान का तेज अनन्त होनेसे अथवा अनंतवीर्यधारी आप भी तेज:पुंज होनेसे आपको “अनंतधामर्षि” हो।
७६७. पाप को गलानेवाले होनेसे ( मं +गल्) तथा शुभ लाने वाले होनेसे “मंगल” हो।
७६८. पाप मल को दूर करनेवाले होनेसे “मलह” हो।
७६९. पाप रहीत होनेसे “अनघ” भी कहलाते हो।
अनीदृगुपमाभूतो दिष्टिर्देव मगोचर: । अमूर्तो मुर्तिमानेको नैको नानैक तत्त्वदृक् ॥ ९॥
७७०. आपके समान कोई और कही नही दिखता इसलिये “अनिदृक“ हो।
७७१. आपके लिये अब कोई और उपमा नही रह गयी है अथवा सबके लिये उपमा के योग्य होनेसे “उपमाभूत“ हो।
७७२. देनेवाले अथवा दातार होनेसे, शुभाशुभदाता होनेसे “दिष्टी” हो।
७७३. प्रबल होनेसे या स्तुति के योग्य होनेसे या स्वयं प्रकाशित होनेसे “दैव” हो।
७७४. इन्द्रियो के ज्ञान मे ना आनेसे “अगोचर“ हो।
७७५. शरीर रहितता के कारण अथवा मात्र भावोंका और भक्ति का विषय होनेसे “अमूर्त“ हो।
७७६. पुरुषाकार होनेसे अथवा निश्चल रुप होनेसे “मुर्तीमान” है ।
७७७. अद्वितीय होनेसे अथवा एक आत्मस्वरुप होनेसे “एक” हो।
७७८. अनेक रुपोंसे भव्य जीवोंके सहायक होनेसे “अनेक” हो।
७७९. आत्मा के अलावा किसी भि और तत्त्व पर दृष्टी ना रखनेसे अथवा अन्य तत्त्वोमे रुची ना होनेसे “नानैकतत्त्वदृक” भी कहलाये जाते है।
अध्यात्म गम्योऽ गम्यात्मा योगविद्योगि वन्दित:। सर्वत्रग: सदाभावी त्रिकाल विषयार्थदृक्॥ १०॥
७८०. आपको केवल अध्यात्म के द्वारा हि जाना जा सकता है, इसलिये “अध्यात्मगम्य“ हो।
७८१. संसारी जीवोंको आपका यथार्थ स्वरुप समझना अशक्य है, इसलिये “अगम्यात्मा” हो।
७८२. योग के सर्वोच्च ज्ञानी होनेसे “योगविद्” हो।
७८३. योगीयोंद्वारा अर्थात मोक्षमार्ग पर साधना करनेवाले गणधरादि मुनियोके वंदनीय होनेसे “योगीवन्दित“ हो।
७८४. आप केवल ज्ञान द्वारा सम्पुर्ण लोकमे व्याप्त है – ज्ञान के द्वारा सर्वत्र पहुंच सकते है, इसलिये “सर्वत्रग“ हो।
७८५. सदैव विद्यमान रहनेसे अथवा सद्भावयुक्त हि होनेसे अथवा किसी भि सत्ता का अभाव होनेसे “सदाभावी” हो।
७८६. त्रिकाल संबंधी समस्त पदार्थ कि समस्त पर्यायोंके देखने से “त्रिकालविषयार्थदृक” कहलाते हो ।
शंकर: शंवदो दान्तो दमी क्षान्तिपरायण: । अधिप: परमानन्द: परात्मज्ञ: परात्पर: ॥११॥
७८७. सबको वरदान ( मोक्षमार्गका) देनेवाले अथवा संसारदाह का शमन करनेवाले होनेसे “शंकर“ हो ।
७८८. यथार्थ सुखके वक्ता, व्याख्याता होनेसे “शंवद“ हो।
७८९. मन को वश करनेवाले होनेसे “दान्त“ हो।
७९०. इन्द्रियोको, कर्मोंको दमन् करनेवाले “दमी” हो।
७९१. क्षमा करने मे तत्पर तथा क्षमा भाव हि सदैव धारण करनेसे “क्षान्तिपरायण“ हो।
७९२. जगत के अधिपति होनेसे अथवा जगत् पर आपका हि शासन चलनेसे “अधिप“ हो।
७९३. आत्मामे रममाण होनेका आनंद सदैवहि लेनेसे अथवा अनंतसुख के धारी होनेसे “परमानंद” हो।
७९४. निज और पर के ज्ञाता होनेसे अथवा विशुध्द आत्मा के यथार्थ स्वरुप् को जाननेसे “परात्मज्ञ” हो।
७९५. श्रेष्ठोंमे श्रेष्ठ होनेसे “परात्पर” कहा जाता है।
त्रिजगद्वल्लभो ऽभ्यर्च्य स्त्रिजगन्मंगलोदय्: । त्रिजगत्पति प्पुज्याङिघ्र स्त्रिलोकाग्र शिखामणि:॥१२॥
७९६. तिनो लोक मे आप प्रिय हो इसलिये “त्रिजगद्वल्लभ“ हो ।
७९७. सबके पूज्य तथा प्रथम या अग्रार्चना योग्य होनेसे “अभ्यर्च्य“ हो।
७९८. तीनो लोकोंका मंगल करनेवाले “त्रिजगन्मंगलोदय” हो।
७९९. आपके चरणद्वय तिनो लोकोके इन्द्रोद्वारा पूज्य है, इसलिये “त्रिजगत्पति पूज्याङिघ्र” हो।
८००. आप तिनोलोक के अग्र मे एक् शिखामणिके समान विराजित होनेसे “त्रिलोकाग्रशिखामणी“ भि कहलाते है।
इति बृहदादिशतम् ।
त्रिकालदर्शी लोकेशो लोकधाता दृढव्रत:। सर्वलोकातिग: पूज्य: सर्वलोकैक सारधि:॥ १॥
८०१. भूत–भविष्य–वर्तमान को प्रत्यक्ष और एक साथ देखनेसे“त्रिकालदर्शी“हो।
८०२. तिनो लोक के प्रभु होनेसे “लोकेश“हो।
८०३. समस्त प्राणियोंके रक्षक होनेसे “लोकधाता“हो।
८०४. स्वीकृत चारित्र्य को निश्चल रखनेसे सम्यक रखनेसे अथवा पंचमहाव्रतोंका दृढता से पालन करनेसे“दृढव्रत“भि कहा जाता है।
८०५. प्राणीयोंमेभी आप तिनो लोकोंए श्रेष्ठ होनेसे आप “त्रिलोकातिग” हो।
८०६. पूजा के योग्य होनेसे “पूज्य“हो।
८०७. समस्त प्राणीयोंको, भव्य जनोको मुख्यत: मोक्षमार्ग का स्वरुप उपदेश करनेसे“सर्वलोकैकसारधि“भि कहे जाते हो।
पुराण: पुरुष: पुर्व: कृतपुर्वागविस्तर:। आदिदेव: पुराणाद्य :पुरुदेवोऽधिदेवता॥ २॥
८०८. सबसे प्राचीन होकर मुक्तीपर्यंत शरीर मे विश्राम करनेसे“पुराण“हो।
८०९. विश्वात्मक होनेसे या निराकार होनेसे अथवा सबसे बडे होनेसे अथवा समवशरण कि लक्ष्मी ने वरण किया हो, इसलिये“पुरुष“हो।
८१०. सबसे अग्रीम होनेसे अथवा सबसे ज्येष्ठ होनेसे“पुर्व“हो।
८११. ग्यारह अंग, चौदह पुर्व का विस्तार का उत्कृष्ट निरुपण करनेसे” कृतपुर्वांगविस्तर” हो।
८१२. सब देवोमे मुख्य, प्रथम होनेसे“आदिदेव“हो।
८१३. सब पुराणोमे प्रथम होनेसे“पुराणाद्य” हो।
८१४. इन्द्रादि देवोंसे मुख्यत: आराधित होनेसे अथवा सबके ईश्वर होनेसे“पुरुदेव“हो।
८१५. देवो के देव अथवा देवोंके अधिष्ठाता देव होनेसे“अधिदेवता” इन नामोसेभी आपको पुकारा जाता है।
युगमुख्यो युगज्येष्ठो युगादिस्थितिदेशक:। कल्याणवर्ण: कल्याण: कल्य: कल्याणलक्षण:॥३॥
८१६. इस अवसर्पिणी कालमे मुख्य होनेसे अथवा इस काल के प्रथम तीर्थंकर होनेसे आपको“युगमुख्य“हो।
८१७. इस युग मे सबसे बडे या प्रथम होनेसे “युगज्येष्ठ“हो।
८१८. विदेह क्षेत्र कि रचना अवधीज्ञानसे जानकर इस युग के प्रारंभ मे कर्मभूमी कि रचना करनेसे अथवा उस समय कि स्थिती का आकलन सामान्य जनोंके करानेसे“युगादिस्थितीदेशक“हो।
८१९. तप्त सुवर्णके समान शरीर कि कांति होनेसे अथवा पवित्र करनेवाले होनेसे“कल्याणवर्ण“हो।
८२०. स्वयं मंगल होनेसे, पवित्र होनेसे“कल्याण“हो।
८२१. सबका कल्याण करनेवाली आपकी वाणी, आपका उपदेश, आपका शासन रहनेसे“कल्य“हो।
८२२. मंगल स्वरुप होकर आप कल्याण रुप लक्षण धारण करते है, अथवा आपके सानिध्य मे अष्टमंगल होते है इसलिये आपको“कल्याणलक्षण“भि कहा जाता है।
कल्याणप्रकृति र्दीप्तकल्याणात्मा विकल्मष:। विकलंक: कलातीत: कलिलघ्न: कलाधर:॥४॥
८२३. आप कल्याण करनेके स्वभावी होनेसे अथवा केवल ज्ञान के प्राप्तिके बाद आपका उपयोग मात्र कल्याणके लिये हि होनेसे“कल्याणप्रकृति“हो।
८२४. जिसमे स्वयं प्रकाश हो, जो आत्मा प्रकाश स्वरुप हो ऐसी आत्मा के धारक आप चारो ओर कल्याणरुपी प्रकाश फैलाते हो, इसलिये आपको“दिप्तकल्याणात्मा“भि कहा जाता है।
८२५. कोई पाप, दोष, कषाय ना होनेसे आपको“विकल्मष“हो।
८२६. कलंक, कलुष रहित होनेसे, विशुध्दात्मा होनेसे“विकलंक“हो।
८२७. शरीर रहित होनेसे अथवा सर्व कलाओंके पार होनेसे“कलातीत” हो ।
८२८. कलील का अर्थात पाप का नाश करनेवाले“कलीलघ्न“हो।
८२९. अनेक कलापोंके धारी“कलाधर“ऐसे भि आप जाने जाते है।
देवदेवो जगन्नाथो जगद्बन्धु र्जगद्विभु:। जगध्दितैषी लोकज्ञ: सर्वगो जगदग्रज: ॥५॥
८३०. इन्द्रादि सब चतु:निकाय देवोंके देव होनेसे“देवदेव“हो।
८३१. जगत् के स्वामी “जगन्नाथ” हो।
८३२. जगत के कल्याणकारी होनेसे“जगद् बंधू“हो।
८३३. समस्त जगत् के प्रभु “जगद् विभू” हो।
८३४. जगत हित कि कामना करनेवाले होनेसे “जगद् हितैषी“हो।
८३५. तिनो लोक को जाननेसे अथवा तिनो लोकोंका सम्पुर्ण ज्ञान धारण करनेसे “लोकज्ञ“हो।
८३६. केवलज्ञान द्वारा सब जगह मे व्याप्त होनेसे“सर्वग” हो।
८३७. समस्त जगत् मे श्रेष्ठ होनेसे “जगदग्रज” ऐसे नामोंसे भी आपको जाना जाता है।
चराचरगुरु र्गोप्यो गूढात्मा गूढगोचर:। सद्योजात: प्रकाशात्मा ज्वल ज्वलनसप्रभ:॥६॥
८३८. समस्त चराचर को ज्ञान, उपदेश देनेसे तथा मार्ग दिखानेसे “चराचरगुरु“हो।
८३९. हृदय मे स्थापित कर यत्नसे जतन करने योग्य होनेसे” गोप्य” हो।
८४०. आपके आत्मा स्वरुप गूढ है, अर्थात आपके अलावा कोई नही जानता इसलिये “गूढात्मा” हो।
८४१. गूढ पदार्थ जैसे जीवादिको जाननेसे“गूढगोचर” हो।
८४२. आप सदाहि नवीन जान पडते है, अर्थात नित्य नये गुण प्रकट होते रहनेसे“सद्योजात” हो।
८४३. प्रकाश स्वरुप होनेसे अथवा समस्त जनोंको आत्मा के बारे मे उपदेश देनेसे अथवा कर्म झडी हुई आपकी आत्मा परमशुक्ल प्रकाशरुप होनेसे “प्रकाशात्मा“हो।
८४४. जलती हुइ अग्नी के समान दैदिप्यमान होनेसे “ज्वलज्ज्वलनसप्रभ” भी आपके हि नाम है।
आदित्यवर्णो भर्माभ: सुप्रभ: कनकप्रभ:। सुवर्णवर्णो रुक्माभ सूर्यकोटिसमप्रभ:॥७॥
८४५. उदीत होते हुए सूर्य के समान आभा होनेसे“आदित्यवर्ण” हो।
८४६. सुवर्णके समान कांतियुक्त होनेसे“भर्माभ” हो।
८४७. आनंददायक सुन्दर कान्ति होनेसे “सुप्रभ” हो।
८४८. सुवर्णके समान कांतियुक्त होनेसे” कनकप्रभ” हो ।
८४९. “सुवर्णवर्ण“हो।
८५०. “रुक्माभ“हो।
८५१. करोडो सूर्योंके समान प्रभा होनेसे“सूर्यकोटीसमप्रभ” यह आपकेहि नाम है।
तपनीयनिभ स्तुंगो बालार्काभोऽ नलप्रभ:। सन्ध्याभ्रबभ्रु र्हेमाभ स्तप्त चामिकरच्छवि:॥८॥
८५२. तप्त सुवर्णके समान वर्ण होनेसे“तपनियनिभ“हो।
८५३. उँचे शरीर धारी“तुंग” हो।
८५४. उदय होतेसे हुए सुर्य के समान वर्णसे “बालार्काभ“हो।
८५५. अग्नीके समान वर्ण होनेसे“अनलप्रभ“हो।
८५६. संध्याके समय छाये हुए मेघ से दृगोचर सूर्य के सुवर्णरक्तवर्ण के समान होनेसे“संध्याभ्रबभ्रु“हो।
८५७. सुवर्णवर्ण होनेसे “हेमाभ“हो।
८५८. तपाये हुए सुवर्णके समान कांतिहोनेसे आप को“तप्तचामीकरप्रभ” भि कहा जाता है।
निष्टप्त कनकच्छाय: कनत्कांचन संनिभ:। हिरण्यवर्ण: स्वर्णाभ: शातकुम्भ निभप्रभ:॥९॥
सुवर्ण के समान उज्ज्वल और कांतियुक्त होनेसे ……….
८५९. आप ” निष्टप्तकनकच्छाय“हो।
८६०. “कनत्कांचनसंनिभ“हो।
८६१. “हिरण्यवर्ण“हो।
८६२. ” स्वर्णाभ“हो।
८६३. “शातकुम्भनिभप्रभ” इन नामसे भि जाना जाता है।
द्युम्नाभो जातरुपाभ स्तप्तजाम्बुदद्युति: । सुधौतकलधौतश्री: प्रदीप्तो हाटकद्युति:॥१०॥
८६४. स्वर्णके समान उज्ज्वल होनेसे“द्युम्नाभ“तथा
८६५. “जातरुपाभ” तथा
८६६. “तप्तजांबुनद्युति“कहलाते हो।
८६७. तप्त सुवर्णसे मल निकल जानेके बाद निर्मल हुए स्वर्ण जैसे होनेसे “सुधौतकलधौतश्री“हो।
८६८. दैदिप्यमान होनेसे“प्रदीप्त” भि आपको हि कहा जाता है।
८६९. आप को “हाटकद्युती” भी कहा जाता है।
शिष्टेष्ट: पुष्टिद: पुष्ट: स्पष्ट: स्पष्टाक्षर: क्षम:। शत्रुघ्नोऽप्रतिघोऽमोघ: प्रशास्ता शासिता प्रभू:॥११॥
८७०. शिष्ट अर्थात उत्तम पुरुषो के प्रिय अथवा इष्ट होनेसे आपको “शिष्टेष्ट“हो।
८७१. ऐश्वर्य तथा आरोग्यदायी होनेसे “पुष्टीद“हो।
८७२. महाबलवान अर्थात अनंतवीर्य होनेसे “पुष्ट” हो।
८७३. सबको प्रकट दिखायी देने से, आप सबमे विशेष होनेसे अनंत लोगोंमेभी अलग दिखायी देनेसे“स्पष्ट” हो।
८७४. आपकी वाणी शुध्द, स्पष्ट, आनंददायी होनेसे“स्पष्टाक्षर“हो।
८७५. समर्थ होनेसे अथवा धीर होनेसे अथवा क्षमाशील होनेसे “क्षम“हो।
८७६. कर्मशत्रूके नाशक “शत्रुघ्न” हो।
८७७. क्रोधरहित क्षमावान रहनेसे“अप्रतिघ” हो।
८७८. सफल मार्ग के दर्शक होनेसे“अमोघ” हो।
८७९. सन्मार्ग दर्शक होनेसे अथवा प्रशस्त शासन का उपदेश देनेसे“प्रशास्ता“हो।
८८०. समस्त जनोकें संसारमार्गसे रक्षक होनेसे“शासिता“हो।
८८१. अपने आप उत्पन्न होनेसे, स्वयं हि स्वयं के स्वामी होनेसे “स्वभू” ऐसे भि आपके रुप् है, आपके नाम ह।
।
शान्तिनिष्ठो मुनिज्येष्ठ: शिवताति: शिवप्रद:। शान्तिद: शान्ति कृच्छान्ति: कान्तिमान् कामितप्रद:॥१२॥
८८२. शान्तिमे हि रुचि रहनेसे अथवा सदैव शांत हि रहनेसे“शांतिनिष्ठ“आप हो ।
८८३. मुनियोंमे श्रेष्ठ होनेसे अथवा आपहि इस काल के प्रथम मुनि होनेसे अथवा इस काल मे मुनिधर्म कि शुरुवात करनेसे“मुनिज्येष्ठ” भी आप हो।
८८४. सुख कि परंपरा होनेसे अथवा आनंद का स्रोत होनेसे “शिवताति” हो।
८८५. कल्याण के, मोक्षके दाता होनेसे“शिवप्रद“हो।
८८६. शांतिदायक आप“शांतिद“हो।
८८७. समस्त उपद्रव शामक होनेसे “शांतिकृत“हो।
८८८. कर्मोका क्षय करके शमन करनेसे“शान्ति“हो।
८८९. कान्तियुक्त होनेसे“कान्तिमान“हो।
८९०. मनोवांछित फल देनेवाले वरद होनेसे “कामितप्रद” भी आपको हि पुकारा जाता है।
श्रेयोनिधी रधिष्ठान मप्रतिष्ठ: प्रतिष्ठीत:। सुस्थिर: स्थावर: स्थाणु: प्रथीयान्प्रथित: पृथु:॥१३॥
८९१. आप, जे भगवन् , कल्याण का सागर हो, “श्रेयोनिधी“हो।
८९२. धर्म का आधार अथवा धर्म का मूल कारण होनेसे“अधिष्ठान “हो।
८९३. आपको किसीने ईश्वर नही बनाया, आप स्वयं हि स्वयं के पुरुषार्थ से ईश्वर बन गये हो, इसलिये आप “अप्रतिष्ठ“हो।
८९४. लेकिन ईश्वर बनने के बाद आप सर्वत्र“प्रतिष्ठित” हो गये हो ।
८९५. आप अतिशय स्थिर हो, अर्थात स्वयं मे हो, इसलिये आप“सुस्थिर” हो।
८९६. आप ईश्वर होकर विहार रहीत हो, आप पृथ्वी पर चले बगैर हि, सर्वत्र पहुँच जाते हो, इसलिये “स्थावर“हो।
८९७. निश्चल हो, स्वयं मे स्थिर हो, निज मे रमते हो, इसलिये“स्थाणु” हो।
८९८. आप ज्ञान के द्वारा विस्तृत हो, इसलिये“प्रथीयान” हो।
८९९. प्रसिध्द हो, लोगोंके चर्चा का विषय हो इसलिये“प्रथित“हो ।
९००. आप बहोत बडे हो, ज्येष्ठ हो, श्रेष्ठ हो, विश्ववंद्य हो, इसलिये आपको“पृथु“भि कहा जाता है।
इति त्रिकालदर्श्यादिशतम्।
दिग्वासा वातरशनो निर्ग्रन्थेशो निरम्बर:। निष्किञ्चनो निराशंसो ज्ञानचक्षुर मोमुह:॥१॥
९०१. दश दिशाहि आपके वस्त्र है, अर्थात आप कोई भि वस्त्र का उपयोग नही करते इसलिये “दिग्वासा“हो।
९०२. आप कोई भि करधनी (कमरगोफ) का प्रयोग नही करते मानो वायु हि जो आपकी परिक्रमा करता है, वह आपकी करधनी है, इसलिये “वातरशन“हो।
९०३. निर्ग्रंथ मुनि जो आपका हि वेष धारण करते है, उनमे श्रेष्ठ होनेसे “निर्ग्रंथेश“हो।
९०४. आप कोई भि आवरण का प्रयोग ना करनेसे “निरंबर“हो।
९०५. अकिंचन होनेसे अथवा तुषमात्र भि परिग्रह ना होनेसे “निष्किञ्चन“हो।
९०६. इच्छा या कांक्षा ना होनेसे “निरांशस“हो।
९०७. ज्ञान रुपी नेत्रो को धारण करनेसे, आपके ज्ञान मे समस्त जगत कि दृष्टी मे जो पदार्थ है, वह रहनेसे“ज्ञानचक्षु” हो।
९०८. अत्यंत निर्मोही होनेसे अथवा मोहांधकार का नाश करनेसे“अमोमुह” भि आपको हि कहा जाता है।
तेजोराशी रनंतौजा ज्ञानाब्धि: शीलसागर:। तेजोमयोऽ मितज्योति ज्योतिर्मूर्ति स्तमोपह:॥२॥
९०९. समवशरण मे स्थित आपका तेज अनंतगुणे दृश्य होनेसे अथवा तेज के समूह होनेसे “तेजोराशी“हो।
९१०. अत्यंत पराक्रमी होनेसे अथवा अनंतशक्त होनेसे“अनंतौजा” हो।
९११. ज्ञान के सागर होनेसे “ज्ञानाब्धि” हो।
९१२. आपके १८००० शील गुण प्रकट होनेसे, शील के सागर होनेसे, स्वभाव मे विशालता होनेसे“शीलसागर“हो।
९१३. आपका स्वंय का तेज और समवशरण मे देवकृत अतिशय तथा प्रातिहार्य से आप तेज से अंकित अर्थात“तेजोमय” हो।
९१४. आपके ज्ञान ज्योती का प्रकाश अमित है अथवा कोई भि मिती आपके ज्ञान को सीमामे नही बांध सकती, आप ऐसे ज्ञान का उपदेश देते है, जो राह मे प्रकाश के समान सदैव साथ दे इसलिये“अमितज्योती” हो।
९१५. तेजस्वरुप, प्रकाशरुप, ज्ञानज्योतीरुप होनेसे“ज्योतिर्मूर्ति“हो।
९१६. अज्ञानांधकार अथवा मोहांधकार का नाश करनेवाले होनेसे “तमोपह“भि आपका हि नाम है।
जगच्चूडामणि र्दीप्त: शंवान विघ्नविनायक:। कलिघ्न कर्मशत्रुघ्नो लोकालोक प्रकाशक:॥३॥
९१७. तीन लोकोमे मस्तक के रत्न होनेसे अथवा तिन लोक के मस्तक मुकुट अर्थात सिध्दशीला पर विराजमान होनेवाले होनेसे“जगच्चुडामणी“हो।
९१८. तेजस्वी अथवा प्रकाशमान होनेसे अथवा स्वयंके प्राप्त केवलज्ञानसे बोधित होनेसे“दीप्त“हो।
९१९. सदैव सुखमे सातामे शांत रहनेसे “शंवान” हो।
९२०. विघ्न अर्थात अंतराय कर्म के नाशक होनेसे “विघ्नविनायक” हो।
९२१. दोषोंको दुर करने अथवा कषायोंका नाश करनेसे“कलिघ्न“हो।
९२२. कर्मशत्रूओंका नाश करनेसे“कर्मशत्रूघ्न” हो।
९२३. लोक तथा अलोक को प्रकाशित करनेवाले होनेसे “लोकालोकप्रकाशक” नामसे भि आपको जाना जाता है।
अनिद्रालु रतन्द्रालु र्जागरूक: प्रभामय:। लक्ष्मीपति र्जगज्ज्योति र्धर्मराज: प्रजाहित:॥४॥
९२४. आपके कोई परिषह नही होते अर्थात निद्रा भि नही है, इसलिये आपको“अनिद्रालु“हो।
९२५. निद्रा और जागरुकता के बिचमे जो तंद्रा होती है वह स्थिती भि आपकी नही होती, अर्थात आप सदैव जागरुक होते है, इसलिये“अतंद्रालु“हो।
९२६. अपने स्वरुप के सिध्दीके लिये आप सदैव तत्पर रहते है, आप “जागरुक” हो ।
९२७. ज्ञान स्वरुप होनेसे अथवा भामंडल सहीत होनेसे “प्रभामय” हो।
९२८. मोक्षलक्ष्मी के अधिपती आप“लक्ष्मीपती” भी कहलाते है ।
९२९. जगत को प्रकाशीत करनेवाला ज्ञान धारण करनेसे अथवा जगत मे आप जैसा कोई ना ज्ञानी होनेसे“जगज्ज्योति“हो।
९३०. धर्म के स्वामी होनेसे अथवा, आपने राज्यत्याग करके धर्म को हि अपना राज्य माना है, इसलिये “धर्मराज“हो।
९३१. प्रजा के हितैषी होनेसे तथा आप हि प्रजा के लिये उसका हित हो, इसलिये आपको “प्रजाहित“भि कहा है।
मुमुक्षु र्बन्ध मोक्षज्ञो जिताक्षो जितमन्मथ:। प्रशान्तरसशैलुषो भव्यपेटकनायक:॥ ५॥
९३२. मोक्ष मे हि रुचि रखनेसे आप “मुमुक्षु” है।
९३३. बन्ध और मोक्ष का स्वरुप जाननेसे “बन्धमोक्षज्ञ“हो।
९३४. इन्द्रिय विजयी होनेसे अथवा इन्द्रियेच्छा ना होनेसे या शांत होनेसे“जीताक्ष“हो।
९३५. काम पर विजय पानेसे“जितमन्मथ“हो।
९३६. गंधर्व जैसे रस पान करके मस्त होके नृत्य करते है, वैसे हि आप शांतरस मे हि नर्तन करनेसे“प्रशांतरसशैलुष” कहे जाते है।
९३७. समस्त लोक के भव्य जीवोंके नायक होनेसे“भव्यपेटकनायक“भि आप कहलाते है।
मूलकर्ताऽ खिलज्योति र्मलघ्नो मूलकारण:। आप्तो वागीश्वर: श्रेयान श्रायसुक्ति र्निरुक्तिवाक्॥६॥
९३८. कर्म भुमी के कर्ता होनेसे अथवा धर्म के मूल होनेसे“मूलकर्ता” हो।
९३९. अनंतज्ञानज्योति स्वरुप होनेसे “अखिलज्योती“हो।
९४०. रागद्वेषादि मल का नाश करनेसे अथवा आत्मा के ऊपर चिपके हुए कर्ममल का नाश करनेसे “मलघ्न” हो।
९४१. मोक्ष के मूल कारण होनेसे अथवा मोक्ष की इच्छा आपको देखकर उत्पन्न होनेसे“मूलकारण” हो।
९४२. समस्त लोक मे आप हि एक विश्वसनीय ( मोक्षमार्गके) होनेसे अथवा आपकी वाणी यथार्थ मोक्षमार्ग प्रकाशक होनेसे“आप्त” हो।
९४३. अमोघ वाणी के वक्ता होनेसे“वागीश्वर“हो।
९४४. कल्याण स्वरुप अथवा इष्ट रुप होनेसे अथवा मंगल कर्ता होनेसे“श्रेयान्“हो।
९४५. आपकी वाणी भी कल्याणकारी होनेसे अथवा मंगल होनेसे“श्रायसुक्ति” हो।
९४६. नि:संदेह वाणी होनेसे अथवा आजतक आपके जैसी वाणी किसीने भि नही प्रकट की हुई होनेसे आपको“निरुक्तवाक्” इत्यादि नामोंसे भी जाना जाता है।
प्रवक्ता वचसामीशो मारजित् विश्वभाववित्। सुतनु स्तनुनिर्मुक्त: सुगतो हतदुर्नय:॥ ७॥
९४७. सबसे श्रेष्ठ वक्ता होनेसे“प्रवक्ता” हो।
९४८. आपके वाणी मे सर्व प्रकार के वचन शामील होनेसे“वचसामिश“हो।
९४९. कामदेव को जितनेसे अथवा मार पर विजयी होनेसे“मारजित्” हो।
९५०. समस्त प्राणीयोंके अभिप्राय जाननेसे अथवा विश्व व्यापक भाव धारण करनेसे“विश्वभाववित्“हो।
९५१. आप जरा नष्ट होनेसे आप सुकोमल या सुंदर तनु के स्वामी है, इसलिये“सुतनु” हो।
९५२. शरीर तो आपका नाममात्र है, अर्थात संसारी शरीर को जो व्याप रहता है, वह आपका नही होता इसलिये आप “तनुर्निर्मुक्त” हो।
९५३. मोक्ष गती प्राप्त करनेवाले होनेसे अथवा आत्मा मे जाकर विश्राम करनेसे अथवा श्रेष्ठ ज्ञान धारी होनेसे“सुगत“हो।
९५४. मिथ्यादृष्टीयोंके खोटे नयोंका नाश करनेवाले होनेसे आपको “हतदुर्नय” भी कहा जाता है।
श्रीश:श्रीश्रितपादाब्जो वीतभी रभयंकर: ।उत्सन्नदोषो निर्विघ्नो निश्चलो लोकवत्सल:॥८॥
९५५. अंतरंग केवलज्ञान रुपी और बहिरंग समवशरण रुपी लक्ष्मीके स्वामी होनेसे आप को “श्रीश” हो।
९५६. लक्ष्मी आप कि दासी होके आपके चरणोमे रहती है अथवा आप के चरण कमल जहा भी पडते है, वहा पद्म, श्री अर्थात कमलो कि रचना होनेसे ” श्रीश्रितपादाब्ज“हो।
९५७. भय को जीतने से“वीतभि“हो।
९५८. स्वयं भि भयमुक्त होकर समस्त जनोंको भि भयमुक्त करनेसे“अभयंकर“हो।
९५९. दोषोंका नाश करनेसे“उत्सन्नदोष“हो।
९६०. विघ्नरहीत होनेसे अथवा विघ्नोंका नाश करनेसे अथवा उपसर्गमुक्त होनेसे“निर्विघ्न“हो।
९६१. स्थिर, निर्विकार, निरामय होनेसे“निश्चल” हो।
९६२. लोगोंके प्रिय होनेसे अथवा आप लोगोंप्रती वात्सल्यसहित होनेसे “लोकवत्सल” कहे जाते है।
लोकोत्तरो लोकपति र्लोकचक्षुर पारधी: ।धीरधी र्बुध्दसन्मार्ग शुध्द: सुनृत–पूतवाक् ॥९॥
९६३. समस्त लोकोंमे उत्कृष्ट होनेसे अथवा लोक मे आपसे श्रेष्ठ कोई ना होनेसे“लोकोत्तर” हो।
९६४. तीनो लोक के नेता होनेसे “लोकपति” हो।
९६५. जैसे आपके ज्ञान के द्वारा तीनो लोक देखे जा सकते है, इसलिये“लोकचक्षु“हो।
९६६. अनंत ज्ञान के धारक होनेसे अथवा आपके ज्ञान का पार ना होनेसे“अपारधी” हो।
९६७. ज्ञान सदा स्थिर रहनेसे, आपका ज्ञान यथार्थ होनेसे किसी भि कालमे नही बदलेगा इसलिये “धीरधी” हो।
९६८. सबसे अच्छे मार्ग को अर्थात मोक्षमार्ग को यथार्थ जाननेसे “बुध्दसन्मार्ग” हो।
९६९. स्वरुप परमविशुध्द होनेसे “शुध्द“हो।
९७०. आपके वचन पवित्र, पतीतपावन तथा यथार्थ होनेसे “सुनृतपूतवाक्” भि कहे जात है।
प्रज्ञा–पारमित: प्राज्ञो यति र्नियमितेन्द्रिय:। भदन्तो भद्रकृत् भद्र कल्पवृक्षो वरप्रद:॥१०॥
९७१. आपके प्रज्ञा का पार नही किसी भि मिती मे, अथवा बुध्दीके पारगामी होनेसे आपको “प्रज्ञापारमीत” हो।
९७२. प्रज्ञा के धनी होनेसे“प्राज्ञा” हो।
९७३. आपने मोक्ष के अलावा किसी और चिज को पाने का यत्न ना किया अथवा मन को जीतनेसे“यतीऽ “हो।
९७४. इन्द्रीयोंको आपके नियम पर चलने के लिये बाध्य करनेसे “नियमितेन्द्रिय“हो।
९७५. पूज्य अथवा प्रबुध्द होनेसे“भदन्त” हो।
९७६. आपने सदैव जनोंका कल्याण हि चाहा और किया हुआ होनेसे “भद्रकृत्” हो।
९७७. मंगल, शुभ, कल्याणकारी, निष्कपट होनेसे“भद्र” हो।
९७८. ईच्छीत पदार्थोंके दाता होनेसे “कल्पवृक्ष” हो।
९७९. उनकी प्राप्ति करानेवाले होनेसे “वरप्रद” कहलाते है।
समुन्मूलीत–कर्मारि: कर्मकाष्ठाऽऽशुशुक्षणि: । कर्मण्य कर्मठ: प्रान्शु र्हेयादेय–विचक्षण:॥११॥
९८०. कर्मरुप शत्रूओंको जडसे उखाड फेकनेसे“समुन्मूलितकर्मारि“हो।
९८१. लकडीके समान धीरे धीरे या थोडे थोडे जलनेवाले कर्मोको जलानेवाले अग्नी होनेसे“कर्मकाष्ठशुशुक्षणी” हो।
९८२. चारित्र्य के नितान्त कुशल होनेसे “कर्मण्य“हो।
९८३. आचरणनिष्ठ होनेसे“कर्मठ“हो।
९८४. सबसे उँचे, प्रकाशमान्, उत्कृष्ट होनेसे “प्रांशु” हो।
९८५. छोडने योग्य और ग्रहण करने योग्य पदार्थोंको जानने मे निष्णात होनेसे “हेयादेयविचक्षण” भी है।
अनन्तशक्ति रच्छेद्य स्त्रिपुरारि स्त्रिलोचन:। त्रिनेत्र स्त्र्यम्बक स्त्र्यक्ष केवलज्ञान–वीक्षण:॥ १२॥
९८६. अंतराय कर्म का नाश करके आप ने अनंतवीर्य पाया है, इसलिए आप “अनंतशक्ती“हो।
९८७. आपका छेदन या भेदन ना कर सकनेसे” अच्छेद्य“हो।
९८८. जन्म जरा मृत्यू का नाश करनेसे तथा स्वर्ग, मध्यलोक, अधोलोक मे पुन: जन्म लेकर इन तिनो पुरोंका स्वयंके जीव कि अपेक्षामे नाश करनेसे “त्रिपुरारि“हो।
९८९. रत्नत्रयरुपी तिन नेत्र होनेसे अथवा तिनो लोक के तिनो काल के समस्त पदार्थोंको एक साथ देखने कि क्षमता होनेसे“त्रिलोचन” हो।
९९०. जन्मसे तीन ज्ञानके धारी होनेसे” त्रिनेत्र” हो।
९९१. “त्र्यम्बक“हो।
९९२. “त्र्यक्ष“हो।
९९३. केवलज्ञान हि आपके नेत्र होनेसे अर्थात द्रव्येंद्रिय चक्षू का उपयोग आपको केवलज्ञान के वजहसे जरुरी ना होनेसे “केवलज्ञानवीक्षण” भि आप हि हो।
समन्तभद्र शान्तारि र्धमाचार्यो दयानिधी:। सूक्ष्मदर्शी जितानंग कृपालू धर्मदेशक:॥ १३॥
९९४. सर्व जन के लिये सर्वमंगल होनेसे “समंतभद्र“हो।
९९५. कर्मशत्रूओंको शान्त कर देनेसे अथवा कोई जन्मजात शत्रूभी (जैसे साप और नेवला अथवा हरिणी और सिंह) आपके सानिध्य मे वैरभाव भूलकर शांत हो जानेसे “शान्तारि” हो।
९९६. धर्म को सिखानेवाले होनेसे “धर्माचार्य“हो।
९९७. दया का सागर होनेसे, दया का भांडार होनेसे“दयानिधी” हो।
९९८. सूक्षात्सूक्ष्म पदार्थ देखनेसे (जैसे अणु) अथवा जनोंको उसके बारेमें अवगत करानेसे “सूक्ष्मदर्शी“हो।
९९९. कामदेव पर विजय पानेसे“जितानंग” हो।
१०००. दयावान होनेसे “कृपालु” हो।
१००१. धर्म के यथार्थ उपदेश हि देशना के रुप मे देने वाले होनेसे“धर्मदेशक” भी आपको कहा जाता है।
शुभंयु सुखसाद्भूत: पुण्यराशी रनामय: । धर्मपालो जगत्पालो धर्मसाम्राज्यनायक:॥१४॥
१००२. मोक्ष रुप शुभ को प्राप्त करनेसे “शुभंयु“हो।
१००३. अनंतसुख को आपने आधीन करनेसे अथवा अद्भुत सुख के साथ रहनेसे“सुखसाद्भूत“हो।
१००४. आप का नाम, गुण, स्मरण, भक्ती, अर्चना, पूजा, वंदना पुण्यकारक होनेसे“पुण्य – राशी” हो ।
१००५. रोग रहित होनेसे“अनामय“हो।
१००६. धर्म कि रक्षा करनेसे अथवा धर्म को शुरु करने वाले तीर्थंकर होनेसे“धर्मपाल“हो।
१००७. जगत् को जीने का उपदेश देकर उनका पालन करनेसे“जगत्पाल“हो।
१००८. धर्म रुपी साम्राज्य के स्वामी, उपदेशक, अधीश्वर होनेसे “धर्म साम्राज्यनायक ” भी कहा जाता है।
इति दिग्वासाद्यष्टोत्तरशतम्।
धाम्नापते तवामुनि नामान्यागम कोविदै:। समुच्चिता–न्यनुध्यायन् पुमान् पूतस्मृति–र्भवेत्॥१॥
अर्थ– हे महातेजस्वी जिनेन्द्रदेव ! इन्द्र जैसे विद्वान लोगोंने आपके उपरोक्त १००८ नामोंका जो आपकी स्तुत्यर्थ है, संचय किया है। जो पुरुष इन नामोंका स्मरण करता है, उसकी स्मरणशक्ती अत्यंत तीव्र हो जाती है।
गोचरोऽपि गिरामासां त्वम वाग्गोचरो मत:। स्तोता तथ्याप्य संदिग्धं त्वत्तोऽभीष्टफलं भजेत्॥२॥
अर्थ– हे प्रभो ! यह १००८ नाम आपका वर्णन तथा स्तुती हेतु कहे गये है, तथापि किसीभी मे इतनी प्रतीभा नही, कि आपका यथार्थ वर्णन कर सके। यद्यपि आप वाणी के अगोचर है, तथापि इन् नामोंसे आपके वर्णन कि चेष्टा करनेवाला पुरुष नि:संदेह हि अपने इष्ट फल कि प्राप्ती करता है।
त्वमतोऽसि जगद्बंधू स्त्वमतोऽसि जगद्भिषक। त्वमतोऽसि जगद्धाता त्वमतोऽसि जगद्धित:॥३॥
अर्थ – हे विभो ! इस संसार मे आप हि सबके बंधु, वैद्य, रक्षक तथा हितैषी है।
त्वमेकं जगतां ज्योति स्त्वं द्विरुपोपयोग भाक्। त्वं त्रिरुपैक मुक्त्यंग: स्वोत्थानन्त चतुष्टय:॥४॥
अर्थ– केवलज्ञान रुपसे जगत प्रकाशक होनेसे “एक” है; सम्यक दर्शन तथा ज्ञान का उपयोग धारण करनेसे आप “दो” है; आपहि सम्यक दर्शन, ज्ञान, चारित्र्य कि एकता ( मोक्षस्वरुप) होनेसे आप “तीन” है और अनंत चतुष्टय ( अनंत – दर्शन, ज्ञान, वीर्य और सुख) धारण करनेसे आप “चार” है॥
त्वं पंचब्रह्मतत्त्वात्मा पंचकल्याणनायक:। षड् भेदभाव तत्त्वज्ञ स्त्वं सप्तनयसंग्रह:॥५॥
अर्थ – पंच परमेष्ठीस्वरूप अथवा पंच कल्याणक के ( गर्भ, जन्म, तप, ज्ञान, मोक्ष) स्वामी होनेसे आप “पाँच” है; छे तत्त्वोका ( द्रव्योंका – जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश, काल) योग्य निरुपण करनेसे आप “छ: ” रुप है; सात प्रकारके नयसें युक्त ( अस्ति, नास्ति, अव्यक्तव्य, अस्ति–नास्ति, अस्ति –अव्यक्तव्य, नास्ति–अव्यक्तव्य, अस्ति– नास्ति–अव्यक्तव्य ) होनेसे “सप्त “रुप भि कहे जाते है।
दिव्याष्ट गुण मूर्तिस्त्वं नवकेवल लब्धिक:। दशावतार निर्धार्यो मां पाहि परमेश्वर:॥६॥
अष्ट गुण धारक ( अनंतचतुष्टय, अगुरुलघुत्व, अवगाहनत्व, सूक्ष्मत्व, अव्याबाधत्व) होनेसे “अष्ट” रुप है; नौ केवल लब्धियोंको धारण करनेसे “नौ” रुप है, महाबलादि दश पर्याय धारण करनेसे “दश” रुप है अत: हे परमेश्वर आप मेरी रक्षा करो।
युष्मन्नामावली दृब्ध विलसत्स्तोत्र मालया। भवन्तं वरिवस्याम: प्रसीदानु गृहाण न:॥७॥
अर्थ – हे वरद ! आपके १००८ नामरुप पुष्पोंकी स्त्रोत्रमालासे हम आपकी आराधना भक्ती करते है; आप हमपर प्रसन्न होकर और कृपा किजिए।
इदं स्तोत्र मनुस्मृत्य पूतो भवति भाक्तिक:। य: संपाठ्य पठत्येनं स स्यात्कल्याण भाजनम्॥८॥
अर्थ – इस स्तोत्र के स्मरण मात्रसे भक्त पवित्र हो जाते है, तथा जो इसका पाठ नित्य पढता है, उसे सब प्रकार के कल्याण प्राप्त होते है, अर्थात परंपरासे उसे भि मोक्ष मिल जाता है।
तत: सदेदं पुण्यार्थी पुमान्पठति पुण्यधी:। पौरुहुतिं श्रियं प्राप्तुं परमामभिलाषुक:॥ ९॥
अर्थ – इसलिये जो पुरुष पुण्य को प्राप्त करना चाहते है, अथवा इन्द्रादि परमविभुति पद को प्राप्त करना चाहते है, ऐसे बुध्दीमान पुरुषोंको इस स्तोत्र का पाठ नित्य करना चाहिए।
स्तुत्वेति मघवा देवं चराचर जगद्गुरुम्। ततस्तीर्थ विहारस्य व्यधात्प्रस्तावना मिमाम्॥१०॥
अर्थ – इस प्रकारसे ( उपरोक्त) इन्द्र ने चराचर स्वरुप उस् जगत्गुरु देवाधिदेव जिनेंद्र भगवान कि स्तुति कि और फिर इन्हे उपदेश और जनकल्याणहेतु तीर्थ विहार करने हेतु निम्न प्रार्थना की।
स्तुति: पुण्यगुणोत्किर्ति: स्तोता भव्य प्रसन्नधी:। निष्ठितार्थो भवांस्तुत्य: फलं नैश्रेयसं सुखम् ॥११॥
अर्थ– प्रसन्न बुध्दीवाला जीव स्तुति करनेवाला होता है; और स्तुति का अर्थ किसीके पवित्र गुणोंको प्रशंसापुर्वक कथन करना होता है। आपने समस्त पुरुषार्थ समाप्त करके मोक्षरुप लक्ष्मी को प्राप्त किया है, इसलिये आप स्तुत्य है और आपकी स्तुती का फल भी मोक्ष हि है।
य: स्तुत्यो जगतां त्रयस्य न पुन: स्तोता स्वयं कस्यचित्।
ध्येयो योगिजनस्य यश्च नितरां ध्याता स्वयं कस्यचित्॥
यो नेन्तृन् नयते नमस्कृतिमलम् नन्तव्यपक्षेक्षण: ॥
स श्रीमान् जगतां त्रयस्य च गुरुर्देव: पुरु पावन:॥१२॥
अर्थ – जो स्त्युत्य है, स्तावक नही, जो ध्यान करनेयोग्य है, ध्यायक नही; जो अपने अनुयायी श्रेष्ठ पुरुषोंको भी नमस्कार के योग्य बनाता है; जो अंतरंग ( अनंत चतुष्टय) और बहिरंग ( समवशरण) लक्ष्मीसे युक्त है, सबमे श्रेष्ठ है, प्रधान है, पवित्र है, ऐसे देवाधिदेव भगवान अरिहंतदेव को हि तिन लोक का गुरु समझना चाहिये।
तं देवं त्रिदशाधिपार्चितपदं घातिक्षयानन्तरं।
प्रोत्थानन्तच्तुष्टयं जिनमिमं भव्याब्जिनीनामिनम्॥
मानस्तम्भविलोकनानत्तजगन्मान्यं त्रीलोकीपतिं ।
प्राप्ताचिन्त्यबहिर्विभूतिमनघं भक्त्या प्रवन्दामहे॥ १३॥
अर्थ – जिसके चरणोकि पूजा इन्द्र करते है; जिनके घातिया कर्म ( दर्शनावरणीय, ज्ञानवरणीय, मोहनीय और अंतराय) नष्ट हो जानेके बाद अनंत चतुष्टय ( अनंत– दर्शन,ज्ञान, सुख और वीर्य) प्रकट हुए है; जो भव्य जन रुपी कमलोंको प्रफुल्लित करनेवाला है; मानस्तंभ देखने से ही नत हुए समस्त जगत् द्वारा पूज्य है; जिनको समवशरण रुपी अचिन्त्य बाह्यलक्ष्मी भी अनायास प्राप्त हो चुकी है और जो सब प्रकार के पापोसे रहित है; ऐसे तीन लोक के अधिश्वर भगवान जिनदेव को हम भक्तीपुर्वक नमस्कार करते है।
इति श्रीभगवज्जिन सहस्रनाम स्तोत्रं समाप्तम्।